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________________ ! ( ५१ ) गुरु-विनती भरतरी (दोहा) ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जिहाज । आप तिरैं पर तारहीं, ऐसे श्रीऋषिराज ॥ १ ॥ ते गुरु. ॥ मोह महारिपु जीतिकें, छांड्यो सब घरबार । होय दिगम्बर वन बसै, आतम शुद्ध विचार ॥ २ ॥ ते गुरु. ॥ रोग उरग-बिल वपु गिण्यो, भोग भुजंग समान । कदली तरु संसार है, त्यागो सब यह जान ॥ ३ ॥ ते गुरु. ॥ , रतनत्रय निधि उर धेरै अरु निरग्रंथ त्रिकाल । मार्यो काम - खबीसको, स्वामी परम दयाल ॥ ४ ॥ ते गुरु. ॥ पंच महाव्रत आदरें, पांचों समिति समेत । तीन गुपति पालैं सदा, अजर-अमर पद हेत ॥ ५ ॥ ते गुरु. ॥ धर्म धेरै दशलक्षणी, भावैं भावना सार सहैं परीसह वीस द्वै, चारित - रतन भँडार ॥ ६ ॥ ते गुरु. ॥ जेठ तपै रवि आकरो, सूखै सरवर-नीर । शैल - शिखर मुनि तप तपैं, दाझैं नगन शरीर ॥ ७ ॥ ते गुरु. ॥ पावस रैन डरावनी, वरसै जलधर-धार । तरुतल निवसैं तब यति, बाजै झंझावार ।। ८ ।। ते गुरु . ।। सब वनराय । शीत पड़ै कपि-मद गलै, दाहँ ताल तरंगनिके तटै ठाड़े ध्यान लगाय ॥ ९ ॥ ते गुरु. ॥ , इहि विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों कालमँझार । लागे सहज सरूपमें, तनसों ममत निवार ॥ १० ॥ ते गुरु. ॥ भूधर भजन सौरभ ७१
SR No.090108
Book TitleBhudhar Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size2 MB
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