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________________ पूरब भोग न चिंतवैं, आगम वांछा नाहिं। चहुँगतिके दुखसों डरै, सुरति लगी शिवमाहिं॥११॥ ते गुरु.॥ रंगमहलमें पौढ़ते, कोमल सेज बिछाय। ते पच्छिमनिशि भूमिमें, सौवें संवरि काय॥१२॥ ते गुरु.॥ गज चढ़ि चलते गरबसों, सेना सजि चतुरंग। निरखि निरखि पग वे धरै, पाल करुणा अंग॥१३॥ ते गुरु.॥ वे गुरु चरण जहां धरै, जगमें तीरथ जेह । सो रज मम मस्तक चढ़ौ, 'भूधर' मांगै येह ॥१४॥ ते गुरु.॥ जो भव्यजनों को इस संसार-समुद्र से पार उतारने के लिए जहाज के समान हैं, उपदेशक हैं, जो स्वयं भी संसार-समुद्र से पार होते हैं व अन्य जनों को भी पार लगाते हैं, ऐसे श्री ऋषिराज मेरे मन में बसें, निवास करें, अर्थात् मेरे ध्यान के केन्द्र बनें। ___ जिन्होंने मोहरूपी शत्रु को जीतकर, सब घर-बार छोड़ दिया और जो अपने शुद्ध आत्मा का विचार करने हेतु नग्न दिगम्बर होकर वन में निवास करते हैं ऐसे श्री ऋषिराज मेरे मन में बसें। यह देह रोगरूपी सर्प की बांबी के समान हैं और विषयभोग भुजंग/भयंकर सर्प के समान हैं। संसार केले के वृक्ष/तने की भाँति निस्सार है, यह जानकर जिन्होंने इन सबको त्याग दिया है, वे गुरु मेरे मन में बसें। __ दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन तीन रत्नों को जो हृदय में धारण करते हैं और जो सदैव स्वयं हृदय से निर्ग्रन्थ अर्थात् ग्रंथिविहीन हैं, जो अन्त:-बाह्य सब परिग्रहों से दूर हैं, जिनने कामवासना को जीत लिया है और जो परमदयालु हैं, वे गुरु मेरे मन में बसें। जो अजर, अमर पद यानी मोक्ष की प्राप्ति हेतु पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्तियों का सदा पालन करते हैं, वे गुरु मेरे मन में बसें। ७२ भूधर भजन सौरभ
SR No.090108
Book TitleBhudhar Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size2 MB
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