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जो धर्म के दस लक्षणों को धारण करते हैं और बारह भावनाओं को साररूप में अनुभव करते हैं, बाईस परीषहों के त्रास को सहन करते हैं, जो चारित्र के उत्कृष्ट भंडार हैं वे गुरु मेरे मन में बसें। ___ज्येष्ठ मास सूर्य की प्रखरता से तप्त होता है. उस समय जलाशयों का जल सूख जाता है, ऐसे समय पर्वत को ऊँची शिखाओं पर जो तप-साधना करते हैं, जिनकी नग्न काया तपन से तप्त होती है, वे गुरु मेरे मन में बसें। ___ वर्षा ऋतु की सायं-साय करती डरावनी रातें और तेज बरसात में, जबकि तेज तूफ़ानी हवाएँ चल रही हों, तब पेड़ के नीचे साहसपूर्वक जो निश्चल विराजित रहते हैं वे गुरु मेरे मन में बसें।
शीत के मौसम में जब वानर की चंचलता भी सहम जाती है, कम हो जाती है, वन के सारे वृक्ष ठंड से - पाले से झुलस जाते हैं, उस समय तालाब अथवा नदी के किनारे खड़े रहकर ध्यान में जो लीन होते हैं, वे गुरु मेरे मन में बसें।
जो सर्दी, गर्मी, बरसात, तीनों काल में इस प्रकार दुर्द्धर (कठिनाई से धारण किया जानेवाला) तप करते हैं और इसे देह से ममता त्यागकर अपने ज्ञानानन्द स्वरूप के चितवन में लीन रहते हैं वे गुरु मेरे मन में बसें।
अतीत में भोगे गए भोगों के विषय में जो कभी चिंतन नहीं करते, उन्हें स्मरण नहीं करते, न भविष्य के लिए कोई आकांक्षाएँ संजोते हैं; चारों गतियों के दु:खों से जो सदा भयभीत हैं और मोक्षरूपी लक्ष्मी से जिनको लौ/लगन लगी है, वे गुरु मेरे मन में बसें।
जो कभी राजमहलों की कोमल शैय्या पर सोते थे और अब रात्रि के अंतिम प्रहर में भूमि पर काय (शरीर) को साधकर सोते हैं, वे गुरु मेरे मन में बसें। ___जो कभी चतुरंगिनी सेनासहित गर्व से हाथी पर चढ़कर चलते थे, वे ईर्यासमिति का पालन करते हुए, अपने पाँव देख-भालकर उठाकर रखते हैं और समस्त जीवों के प्रति करुणा रखते हैं, वे गुरु मेरे मन में बसें।
वे गरु जहाँ-जहाँ अपने चरण रखते हैं वे सभी स्थान इस जगत में तीर्थ बन जाते हैं। भूधरदास यही कामना करते हैं कि इन चरणों की धूलि मेरे मस्तक पर चढ़े अर्थात् उन चरणों की रज मेरे मस्तक को लगाऊँ। रोगउरगबिल .. रोगरूपी सर्प का बिल। काम ख़वीस = कामरूपी राक्षस । वपु = शरीर। आकरो - तेज । दाझै - जलावे। बाजै - आवाज करती है । झंझावात - झंझावार = बरसात के साथ होनेवाला तूफान, तेज हवा ।
भूधर भजन सौरभ
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