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राग मलार वे मुनिवर कब मिलि है उपगारी॥टेक॥ साधु दिगम्बर नगन निरम्बर, संवर भूषणधारी॥ वे मुनि.॥ कंचन-काच बराबर जिनक, ज्यौं रिपु त्यौं हितकारी। महल-मसान मरन अरु जीवन, सम गरिमा अरु गारी॥१॥वे मुनि.॥ सम्यग्ज्ञान प्रधान पवन बल, तप पावक पर जारी। सेवत जीव सुवर्ण सदा जै, काय-कारिमा टारी॥२॥ वे मुनि.॥
ती जुगत का ' ' विनय, सिन यद डोक हमारी। भाग उदय दरसन जब पाऊं, ता दिनकी बलिहारी॥३॥ वे मुनि.॥
वे मुनिवर जो उपकार करनेवाले है वे मिलें, उनके दर्शन हों - ऐसा सुयोग कब होगा! वे साधु जो निर्वस्त्र हैं, नग्न हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, जो शुद्ध ध्यान में लीन, समस्त आस्रवों से विरत होकर कर्मों के आगमन को रोकने की क्रिया संवर' को धारण किए हुए हैं । चे साधु जो शत्रु व मित्र, स्वर्ण व कांच, महल व मसान (श्मसान), जीवन व मृत्यु, सम्मान व गाली सभी में समताभाव रखते हैं, जिनके समक्ष ये सभी बराबर हैं, वे मिलें, ऐसा सुयोग कब होगा !
वे साधु जो सम्यक्ज्ञान के पवन झकोरों से प्रोत्साहित तप की अग्नि में समस्त परभावों की आहुति देते हैं। कायरूपी कालिमा से अपने को अलग रखकर सुवर्ण के समान अपने शुद्ध स्वभाव में रत रहते हैं, उनके दर्शनों का सुयोग कब होगा!
भूधरदास दोनों हाथ जोड़कर विनयावनत उनके चरण-कमलों में नत हैं। भाग्योदय से जिस दिन ऐसे साधु के दर्शन का सौभाग्य मिले, उस दिन की बलिहारी है, उस पर सब-कुछ निछावर है, उत्सर्ग है क्योंकि वह दिन मेरे जीवन में पूज्य होगा।
भूधर भजन सौरभ