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राग सोरठ
भलो चेत्यो वीर नर तू, भलो चेत्यो वीर ॥ टेक ॥ समुझि प्रभुके शरण आयो, मिल्यो ज्ञान वजीर ॥ भलो. ॥ जगतमें यह जनम हीरा, फिर कहां थो धीर । भलीवार विचार छांड्यो, कुमति कामिनी सीर ॥ १ ॥ भलो. ॥
धन्य धन्य दयाल श्रीगुरु सुमरि गुणगंभीर । नरक परतैं राखि लीनों, बहुत कीनी भीर ॥ २ ॥ भलो. ॥
भक्ति नौका लही भागनि, कितक भवदधि नीर । ढील अब क्यों करत 'भूधर', पहुंच पैली तीर ॥ ३ ॥ भलो. ॥
हे वीर पुरुष ! तू चेत गया है, यह उचित ही हैं। तू सोच-समझकर स्थिर चित्त से प्रभु की शरण आया है, जहाँ तुझे ज्ञानरूपी मंत्री (प्रमुख सलाहकार व सहायक) मिला है। यह मनुष्य जन्म इस जगत में हीरा के समान है, हीरा- तुल्य है, यह जानकर फिर कोई धैर्य कैसे रखें ? इस प्रकार सम्यक विचार आते ही कुमतिरूपी स्त्री से संबंध ढीले हो गए हैं / छोड़ दिये हैं ।
अब श्री गुरु के गहन गुणों का स्मरण करके धन्य हो गया। बहुत कष्टों को सहन करने के पश्चात् पर-रूप नरक से अलग स्वात्मबोधि को प्राप्त हुआ अर्थात् तुझे भेद - ज्ञान हुआ है।
भाग्यवश यह भक्ति नौका प्राप्त हुई है, तो संसार - समुद्र कितना गहरा है ? अब इसका क्या विचार! अब इससे क्या प्रयोजन! अर्थात् अब संसार - समुद्र अधिक गहरा नहीं रह गया है। भूधरदास कहते हैं कि अब देर मत कर, प्रमाद मत कर और इस साधन से भवसागर के उस पार पहुँच जा ।
पैली = परली - दूसरी ।
भूधर भजन सौरभ
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