Book Title: Bhudhar Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachand Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 67
________________ ज्ञाता हैं । हम आपके दास बहुत दुखी हैं, आप उपकार करनेवाले हो इसलिए हे प्रभु! अब हमारी अरज सुनिये। यह संसार अत्यन्त विकट समुद्र है, इसमें अनन्तकाल से भव-भ्रमण हो रहा है। मैं इसमें डूब रहा हूँ, इसमें बहुत असहनीय दुःख हैं, वे समुद्र में अग्नि के समान अर्थात् बड़वानल के समान मेरे अन्तर में दहक रहे हैं। ___ इस संसाररूपी समुद्र में जन्म, मृत्यु, रोग और बुढ़ापेरूपी ऊँची-ऊँची तरंगें उठ रही हैं, इसमें विपत्तियों की अनेक नदियाँ आकर मिल जाती हैं, उनमें मोहरूपी एक विकराल मगर निवास कर रहा है । उस मगर के मुँह में पड़नेवाला जीव दुःख पाता है, उसे आपके बिना कौन छुड़ा सकता है ! हे अशरणों के शरण ! जिनमो कोई शरण देनेवाला नहीं मिले, शाता आप ही हैं। मुझ पर कृपा कीजिए और मेरे इस दुख का निवारण कर मुझे मुक्त कराइए। मुझे दुःख से विलाप करते हुए बहुत समय बीत गया, अब यह दु:ख, यह पीड़ा सही नहीं जाती। सुनते हैं कि जैन शासन में इस पंचम काल में यहाँ से मुक्ति नहीं होती अर्थात् मोक्ष नहीं होता। ___ वस्तु-स्वभाव, दैव (निमित्त), पुरुषार्थ, काललब्धि और भवितव्य .. ये पाँचों कारण मिलें तब आपके सेवक को मुक्ति प्राप्त हो । इसलिए हे स्वामी! अब मेरी आपसे विनती है, हम तेरी शरण में आए हैं। हे प्रभु! मुझे अब प्रकाश मिला है और मैं चाहता हूँ कि मुझे आगामी भवों में भी श्रावक कुल की ही प्राप्ति हो। जिन-आगम का अध्ययन कर उसकी गहनता की थाह लेता रहूँ और भव-भव में मुझे आपकी शरण मिले। __ भव-भव में अच्छी संगति पाऊँ और रलत्रय-साधना करूँ अर्थात् गुणों की महिमा गाऊँ, उन्हें अंगीकार करूँ। कभी मेरे मुख से किसी अन्य की निन्दा न हो, मैं सभी जीवों से मैत्री-भाव रखू। जब तक मेरा यह भवचक्र चले मैं भव-भव में निरन्तर अपनी आत्मा का ध्यान करूँ, मेरा सदैव समाधिमरण हो और काललब्धि का योग पाकर, बल पाकर मोक्षमार्ग पर बढ़ता रहूँ अर्थात् साधना में लगा रहूँ । हे प्रभु! जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो, तब तक मुझे आपकी भक्ति करने का - पूजा करने का मनोरथ प्राप्त हो। भूधरदास हाथ जोड़कर अर्ज करते हैं कि हम सदैव आप समर्थवान का गुणगान गाते रहें। ५६ भूधर भजन सौरभ

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