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हरिगीतिका पुलकन्त नयन चकोर पक्षी, हँसत उर इन्दीवरो। दुर्बुद्धि चकवी बिलख बिछुरी, निविड़ मिथ्यातम हरो॥ आनन्द अम्बुज उमगि उछर्यो, अखिल आतम निरदले। जिनवदन पूरनचन्द्र निरखत, सकल मनवांछित फले ॥१॥ मुझ आज आतम भयो पावन, आज विघ्न विनाशियो। संसारलाार नीर निबटारे, अखिल नन्स प्रकाशियो। अब भई कमला किंकरी मुझ, उभय भव निर्मल ठये। दुःख जरो दुर्गति वास निवरो, आज नव मंगल भये ।। २॥ मनहरन मूरति हेरि प्रभुकी, कौन उपमा लाइये। मम सकल तनके रोम हुलसे, हर्ष और न पाइये ॥ कल्याणकाल प्रतच्छ प्रभुको, लखें जो सुर नर घने । तिस समयकी आनन्दमहिमा, कहत क्यों मुखसों बने ॥३॥ भर नयन निरखे नाथ तुमको, और बांछा ना रही। मन ठठ मनोरथ भये पूरन, रंक मानो निधि लही। अब होय, भव-भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये। कर जोर 'भूधरदास' बिनवै, यही वर मोहि दीजिये ।।४।।
चन्द्रमा को देखकर जैसे चकोर पक्षी के नेत्र आनन्द से पुलकित हो उठते हैं, उसीप्रकार जिनेन्द्ररूपी पूर्णचन्द्र को निरखकर सर्वांग आत्मा से प्रस्फुटित आनन्दरूपी कमल खिल उठा है । जैसे चकवे से दुर्बुद्धिरूपी चकवी अलग हो जाती है, बिछुड़ जाती है, वैसे ही मानो मेरा मिथ्यात्वरूपी गहन अंधकार दूर हो गया है। अब मेरे सब मन- वांछित पूर्ण होंगे। ___ मेरी आत्मा आज पवित्र हो गयी है, मेरे सब विघ्नों का विनाश हो गया है। तत्वों के ज्ञान की अनुभूति होने के कारण संसाररूपी समुद्र का जल चुक गया
भूधर भजन सौरभ