________________
( ३१ )
राग सारङ्ग
भवि देखि छबी भगवान की ॥ टेक ॥
सुन्दर सहज सोम आनन्दमय, दाता परम कल्यानकी ॥ भवि ॥ नासादृष्टि मुदित मुखवारिज, सीमा सब उपमान की । अंग अडोल अचल आसन दिढ़, वही दशा निज ध्यान की ।। १ ।। भवि. I इस जोगासन जोगरीतिसौं सिद्ध भई शिवथानकी । ऐसें प्रगट दिखावै मारग, मुद्रा धात पखान की ॥ २ ॥ भवि. जिस देखें देखन अभिलाषा, रहत न रंचक आनकी । तृपत होत 'भूधर' जो अब ये अंजुलि अमृतपानकी ॥ ३ ॥ भवि ॥
,
1
+
ओह ! (आज) भगवान की भव्य छवि के दर्शन किए जो सुन्दर हैं, सहज हैं, सौम्य व आनन्दमय हैं तथा जो परम कल्याण की दाता (देनेवाली ) है । भगवान की वह छवि प्रसन्न मुद्रायुक्त है, मुखकमल प्रफुल्लित हैं, नासा-दृष्टि है, वह सब उपमानों से अधिक श्रेष्ठ है, उपमानों की चरम स्थिति हैं। वह छवि अडोल, स्थिर, अचल व दृढ़ आसन है यह ही तो निज मग्न होने की स्थिति होती हैं। इसी प्रकार के आसन से, योग-पद्धति से मोक्ष की उपलब्धि होती है । धातु और पाषाण की मूर्तियाँ उस मुद्रा को/उस मार्ग को प्रत्यक्ष बता रही हैं, दिखा रही हैं जिसको देखने के पश्चात् किसी अन्य को देखने की अभिलाषा शेष नहीं रहती । भूधरदास कहते हैं कि ऐसे अमृत को अंजुलिपान करने से अर्थात् दर्शन करने से परम तृप्ति का अनुभव होता है।
*
भूधर भजन सौरभ