Book Title: Bhudhar Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachand Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 43
________________ यह अतुलमहिमा सिन्धु साहब, शक्र पार न पावही । तजि हासभय तुम दास 'भूधर', भक्तिवश यश गावही ॥ ७ ॥ हे जगतबंध जिनेन्द्र ! श्री नाभिराय के सुपुत्र श्री आदिनाथ भगवान ! आप भवसागर से पार उतारनेवाले, भव-भ्रमण को मिटानेवाले, भव्यजनों के मन को आनंदित करनेवाले हो । हे आदिनाथ ! आपकी सदैव वन्दना करूँ, आपके चरणकमलों की पूजा करूँ । कैलाशगिरि पर ऋषभजिनेन्द्र के स्थापित चरण-कमल को मैं अपने हृदयासन पर आसीन करूँ । है अजितनाथ ! जो जीते न जा सकें ऐसे महाबलशाली आठ कर्मों को आपने जीत लिया - यह जानकर मैं आपकी शरण में आया हूँ। हे स्वामी मुझ पर कृपा कीजिए। हे चन्द्रप्रभ ! चन्द्रमा के समान शोभित, चन्द्रमा शुभ लांछन है जिनके ऐसे चन्द्रपुरी के नरेश महासेन के सुपुत्र चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! आप जगत के द्वारा वंदनीय हैं । हे नेमिनाथ ! आप पापरूपी अंधकार का नाश करने के लिए पवित्र सूर्य हैं, आप अज्ञानियों को बोध कराने के लिए विवेक के सागर हैं और भव्यजनरूपी कमलदल के प्रकाशक हैं। आपने राजकुमारी राजुल (से विवाह ) को छोड़कर, कामदेव की सेना को अपने वश में कर लिया और चारित्ररूपी रथ पर चढ़कर दूल्हा बन मोक्षरूपी सुन्दरी का वरण किया । हे भगवान पार्श्वनाथ ! इन्द्रादि देव जिनेन्द्र के जन्म स्थान से जन्मोत्सव मनाने हेतु सुवर्ण के समान शोभित कनकाचल (सुमेरु पर्वत) पर चढ़े, गंधर्व देवों ने यश-गान किया और अप्सराओं ने मंगल गान किया। इस प्रकार सुर असुर सभी ने मिलकर नियोगवश अपने-अपने योग्य कार्य संपन्न किये। हे पार्श्वनाथ ! मैं तो आपका चरण सेवक हूँ, मेरी आशा पूरी करो । हे जगतबंध सिद्धार्थसुत श्रीमहावीर जिनेश्वर ! आप अज्ञानरूपी अंधकार को नाश करनेवाले ज्ञानरूपी सूर्य हो, सेवकों को सुख देनेवाले हो, मेरी दुर्मति का भूधर भजन सौरभ ३२

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