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अन्वयार्थ :: (णाणावरणचउण्ह) चार ज्ञानावरणीय कर्मों के (खओवसमदो) क्षयोपशम से (चउणाणा) चार ज्ञान (हवति) होते है (पणणाणावरणीएखयदो दु) पांच ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षय से (केवल) केवल (णाणं) ज्ञान (हवेइ) होता है।
भावार्थ:- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान क्रमश: मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण अवधिज्ञानावरण और मनः पर्ययज्ञानाबरण के क्षयोपशम से होते है तथा पांचों ज्ञानावरणीय कर्मों की प्रकृतियों के क्षय से केवलज्ञान प्रकट होताहै।
मिच्छत्तणउदयादो जीवाणं होदि कुमति कुसुदं च । वेभंगो अण्णाणति सण्णाणतियेव णियमेण ||4|| मिथ्यात्वानोदयाज्जीवानां भवति कुमतिः कुश्रुतं च |
विभंगः अज्ञानत्रिक सज्ज्ञानन्त्रिकमेव नियमेन ।। अन्वयार्थ :- (मिच्छत्तणउदयादो) मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से (जीवाण) जीवों के (सण्णाणतियेव) मति, श्रुत अवधि रूप तीनों ही सम्यम्ज्ञान (णियमेण) नियम से (कुमतिकुसुद) कुमति कुश्रुत (च) और (वेभंगो) विभंगावधि नाम से (अण्णाणति) तीन अज्ञान रूप (होदि) हो जाते है।
भावार्थ :- ज्ञान में विपरीताभिनिवेश के दो कारण है, मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय । इन दोनों के कारण ही सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञान संज्ञा को प्राप्त होते है, अतः मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी के उदय से जीव के कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये तीन अज्ञान होते है तथा मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय के अभाव में तीनों ज्ञान सम्यक् संज्ञा को प्राप्त होते हैं - अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान कहलाते हैं। पूर्व गाथा में सम्यग्ज्ञान की चर्चा की गई है मिथ्यात्व के निमित्त से तीनों (मति, श्रुत अवधि) को अज्ञानरूपसंज्ञा दी गई है।
विशेष - जैनागम में अज्ञान शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है - एक तो ज्ञान का अभाव या न्यूनता के अर्थ में और दूसरा मिथ्याज्ञान के अर्थ में । पहले वाले को औदयिक अज्ञान और दूसरे वाले को क्षायोपशमिक
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