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मध्यप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थ
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युक्त तीर्थंकर प्रतिमा विराजमान है। उसके चारों ओर नवग्रहोंकी खड़ी हुई मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं | नवग्रहों की प्रमुखता जिनमूर्तिका अंकन अत्यन्त आकर्षक बन पड़ा है । लोग इसे सिन्दूर पोतकर खैरामाईके नामसे अबतक पूजते रहे हैं। इस प्रकारकी न जाने कितनी जैन मूर्तियाँ इस प्रान्तमें खैरामाईके नामसे पूजी जाती हैं । जसो, मैहर, उचहरा, रीवाँ आदिमें जैन मूर्तियोंको खैरामाईके नामसे पूजने का चलन अब भी देखा जा सकता है ।
विन्ध्यप्रदेश में इस युगमें विविध स्थानोंपर जैनधर्मके सबल केन्द्र रहे थे । यहाँका कण-कण प्राचीन काल से ही भारतीय शिल्प-स्थापत्य कलासे सम्पन्न रहा है । भारत और विदेशोंके अनेक संग्रहालय इसी प्रदेशसे गये हुए पुरातत्त्वसे श्रीसम्पन्न हैं । भरहुत स्तूप - जैसी विश्वविश्रुत कलाकृति इसी प्रदेशकी देन है। खजुराहोके कलायतन इसी भूमिके ज्योतित रत्न हैं । इस प्रदेशके कलाकारों की कल्पनाशक्ति, शिल्पवैविध्य, सुललित अंकन, शारीरिक गठन एवं उत्प्रेरक तत्त्व यहाँकी कलाकृतियोंमें आज भी परिलक्षित होते हैं । इस प्रदेशमें पुरातन सामग्री के अवशेष जहाँपर भी मिलते हैं, उनमें जैन सामग्रीका भाग बहुत बड़ा होता है । यहाँके कई मकानोंकी दीवालों, फर्शो और सीढ़ियों में जैन पुरातत्त्वका स्वच्छन्द उपयोग मिलता है । कलकत्ता, प्रयाग, रीवां आदि अनेक संग्रहालयोंमें यहाँकी पुरातत्त्व सामग्री सुरक्षित है । आज भी इस प्रदेशके खेतोंमें जुताईके समय अनेक जैन मूर्तियाँ भूगर्भसे निकलती हुई सुनी जाती हैं । देवतलाब, मऊ, प्योहारी, गुर्गी, नागौद, जसो, लखुरबाग, नचना, उचहरा, मेहर, अजयगढ़, पन्ना, सतना, खजुराहो, छतरपुर तथा उनके निकटवर्ती स्थानोंपर जैन अवशेषोंके ढेर इस बातके साक्षी हैं कि यह सम्पूर्ण भूभाग कभी जैनोंका केन्द्र रहा होगा । आज स्थिति यह है कि इन अवशेषोंमें बिखरी हुई पुरातत्त्व सामग्रीकी नितान्त उपेक्षा हो रही है । इनमें से कई स्थानों पर तो जैनोंका एक भी घर नहीं रहा ।
इस काल और इस प्रदेशकी मूर्तियोंकी अपनी कुछ विशेषताएँ हैं । इस कालकी और इस प्रदेशकी तीर्थंकर - मूर्तियाँ प्रायः अष्ट प्रातिहार्यंयुक्त होती हैं । इसी प्रकार मूर्तिके दोनों ओर यक्षयक्षी और भक्त श्रावक-श्राविकाका अंकन भी प्रायः मिलता है। इस प्रदेश में अनेक स्थानोंपर तोरणद्वार भी मिले हैं । इनमें ललाट बिम्बपर तीन जिन-प्रतिमाएँ होती हैं और शेष भागमें कीर्तिमुख आदि । किसी-किसी में तीर्थंकरोंके अभिषेकका दृश्य भी अंकित होता है । कुछमें गोम्मट स्वामी की मूर्ति बनी होती है । कुछ ऐसी भी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें २४ तीर्थंकरोंके साथ गोम्मट स्वामीकी भी मूर्ति बनी हुई है । दिगम्बर परम्परामें बाहुबलीकी मूर्तियोंका प्रचलन प्राचीन कालसे चला आ रहा है । विन्ध्यप्रदेश और महाकोशलमें बाहुबलीकी मूर्तियाँ तीर्थंकर मूर्तियोंके साथ भी अंकित मिलती हैं। उनकी स्वतन्त्र मूर्तियां सम्भवतः इस कालकी कोई नहीं मिलीं, जबकि ७-८वीं शताब्दीमें बाहुबलीकी स्वतन्त्र प्रतिमाओंका निर्माण होने लगा था । बादामी गुफा में बाहुबलीकी ७॥ फुट ऊँची प्रतिमा मिली है। यह सातवीं शताब्दीमें निर्मित हुई थी । ऐलोरा गुफाके छोटे कैलास मन्दिरको इन्द्र सभाकी दक्षिणी दीवारपर भी बाहुबलीकी मूर्ति बनी हुई है । इसका निर्माण काल आठवीं शताब्दी माना जाता है । देवगढ़के शान्तिनाथ मन्दिरमें ई. सन् ८६२ की बाहुबलीकी मूर्ति है, जिसमें बामी, कुक्कुट, सर्पोंके साथ बिच्छूछिपकली और माधवी लताएँ भी मिलती हैं ।
इस प्रदेशमें कुछ स्थान तो ऐसे हैं, जहाँ पुरातन शिल्पावशेष इतनी प्रचुरतामें उपलब्ध होते हैं, जिनसे एक संग्रहालय मजेमें बन सकता है। रीवाँ ऐसा ही स्थान है । यहाँके कलावशेषोंकी सामग्री अनेक मकानोंमें लगी है, उन अवशेषोंसे कई नये मन्दिर बन गये हैं । रीवांके लक्ष्मण बागवाले नूतन मन्दिरका निर्माण गुर्गीके कलापूर्ण अवशेषोंसे हुआ है। रीवाँके कुछ पुरावशेष