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"भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ श्वेताम्बर साहित्य-'त्रिषष्टिशलाका-पुरुष-चरित्र' आदिके अनुसार जैनधर्मका सर्वाधिक प्रचार अशोकके पौत्र सम्प्रतिके राज्यकालमें हुआ। इस कालमें विदिशामें महावीर स्वामीकी चन्दननिर्मित जीवन्त स्वामीकी प्रतिमा विद्यमान' थी।
दिगम्बर परम्परामें जीवन्त स्वामीकी प्रतिमाओंका कहीं उल्लेख नहीं मिलता। श्वेताम्बर साहित्यमें उल्लिखित कोई जीवन्त स्वामी प्रतिमा अब मध्यप्रदेश में नहीं मिलती।
अब तककी शोध-खोजके परिणामस्वरूप यह स्वीकार करना पड़ता है कि मध्यप्रदेशमें गुप्तकालसे पूर्वकी कोई जैन प्रतिमा नहीं है। हां, गुप्तकालकी कई जैन मूर्तियाँ विद्यमान हैं। इन मूर्तियोंमें गुप्तकालीन कलाके सभी वैशिष्ट्य परिलक्षित होते हैं। इस कालकी प्रतिमाओंमें सौन्दर्य और अलंकरणकी ओर विशेष ध्यान दिया गया है । उष्णीष, प्रभावलय, परिकर आदि कोई अंग सौन्दर्यसे अछूता नहीं रहने पाया है। तीर्थंकरोंके चिह्नोंका प्रचलन इस काल तक अधिक नहीं हो पाया था, तथापि उनका उपयोग प्रारम्भ हो गया था।
यहाँ एक विचारणीय प्रश्न है कि मथुरा आदिमें गुप्तकालके पूर्वकी शक-कुषाण कालकी जैन मूर्तियां जितनी प्रचुर संख्यामें प्राप्त हुई हैं, उतनी जैन मूर्तियां गुप्तकालकी नहीं मिलती, वाकाटक-कालकी भी नहीं मिलती, जबकि गुप्तवंशी राजा शैव या वैष्णव होते हुए भी जैनधर्मके प्रति सहिष्ण और उदार बताये जाते हैं। गप्तकालमें कलाका-चहमखी विकास हुआ था और हिन्द देवी-देवताओंकी इस कालकी मूर्तियां बहु संख्यामें पायी जाती हैं। तब उतनी जैनधर्मसे सम्बन्धित मूर्तियाँ इस कालकी क्यों नहीं मिलती। इतिहास अब तक इस अनसुलझे प्रश्नका कोई उत्तर नहीं दे पाया है।
____ गुप्त शासनके उत्तरवर्ती काल अर्थात् सातवींसे बारहवीं शताब्दी तकके कालको हम मध्यकाल मानकर चलते हैं। प्रायः सातवीं-आठवीं शताब्दीको ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में पूर्व मध्यकाल अथवा सन्धिकालके नामसे भी उल्लिखित किया जाता है। किन्तु सुविधाकी दृष्टिसे हम मध्यकालको पूर्वमध्यकाल अथवा उत्तर-मध्यकालके रूपमें विभाजित न करके इस कालको केवल मध्यकालके रूपमें ही अभिहित करेंगे।
मध्यप्रदेशमें मध्यकालकी जैन मूर्तियां प्रचुर संख्यामें मिलती हैं। यहाँके अनेक क्षेत्रोंकी स्थापना इसी कालमें हुई थी और उन क्षेत्रोंपर इसी कालमें जैन मन्दिरोंका निर्माण किया गया था। इसलिए इस कालकी जैन मूर्तियोंका बहुसंख्यामें पाया जाना स्वाभाविक है। जहाँ कोई तीर्थक्षेत्र नहीं रहा, उन स्थानोंपर भी इस कालकी जैन मूर्तियाँ अत्यधिक संख्यामें मिलती हैं।
विन्ध्यप्रदेश, महाकोशल और मध्यभारतको तो जैन पुरातत्त्वका गढ़ ही कहना चाहिए। यहां कोई वन, पर्वत, जलाशय, दुर्ग ऐसा नहीं है, जहाँ जैन मूर्तियाँ खण्डित और अखण्डित दशामें सैकड़ोंकी संख्यामें न मिलती हों। इन भूभागोंमें चन्देल, कलचुरि, प्रतिहार, तोमर और परमार शासकोंके राज्य-कालमें कलाका विकास द्रुत गतिसे हुआ। यहाँके कलाकारोंने युगकी बदलती कला-प्रवृत्तियोंको भी अनूठे ढंगसे आत्मसात् करके जैन संस्कृतिके मौलिक रूपको सुरक्षित रखनेका पूरा प्रयास किया। " गुप्तयुग और मध्ययुगके सन्धिकालकी भी कुछ मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। मूर्तिके अलंकरण और प्रतिमा-शैलीके आधारपर मूर्तिका निर्माण-काल निर्धारित किया जाता है। एक मूर्ति जबलपुरके निकट स्लिमनाबादमें एक वृक्षके नीचेसे प्राप्त हुई थी। इस शिलाफलकमें अष्ट प्रातिहार्य
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१. आवश्यक नियुक्ति १२७८ ।