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२१. पूर्व पश्चिम लांबी प्रभु ! प्रदश आश्रयी जाणी जी।
संख्याती के असंख्याती छै, अथवा अनंती माणी जी? २२. श्री जिन भाखै नहि संख्याती, असंख्याती नहि थंभी जी।
अनंती कहिय प्रदेश आश्रयी, इम दक्षिण उत्तर पिण लंबीजी ।।
त्वनन्तप्रदशा: तिर्यगायतास्त्वलोकश्रेणयः प्रदेशतोऽनन्ता एवेति ।
(बृ. प. ८६६) २१. पाईणपडीणायताओ णं भंते ! अलोगागाससेढीओ.
पुच्छा । २२. गोयमा ! नो संखेज्जाओ, नो असंखेज्जाओ, अणंताओ। एवं दाहिणत्तरायताओ वि ।
(श २५।८१) २३. उड्ढमहायताओ-पुच्छा।
गोयमा ! सिय संखेज्जाओ, सिय असंखेज्जाओ, सिय अणंताओ।
(श. २५८२) २४. सेढीओ णं भंते !कि सादीयाओ सपज्जवसियाओ ?
सादीयाओ अपज्जवसियाओ?
२३. ऊंची नीची आयत नीं पृच्छा, कदा संख्याती कहिये जी।
कदा असंख्याती कदा अनंती, प्रदेश आश्रयी लहियै जी ।। हिवै श्रेणि आदि सहित प्रश्न पूछ छ । २४. श्रेणी प्रभुजी ! स्यू आदि सहित छ,
के अंत सहित धुर भंगो जी। क आदि सहित ने अंत रहित छै,
ए भंग द्वितीय सुचंगो जी ।। २५. के आदि रहित ने अंत सहित छ, तृतीय भंग ए तामो जी।
के आदि रहित ने अंत रहित छ, ए तुर्य भंग छै आमो जी ? २६. श्री जिन भाखै आदि सहित नै, अंत सहित भंग नाही जी।
आदि सहित ने अंत रहित भंग, ए पिण न लहै क्यांही जी ।। २७. आदि रहित ने अंत सहित ए, तृतीय भंग नहि पावै जी।
आदि रहित ने अंत रहित ए, तुर्य भंग इहां थावै जी ।। २८. एवं जावत ऊंची नीची, आयत श्रेणिज कहिये जी। समुच्चय श्रेणी भणी ए आखी,
हिव लोक अलोक नी लहिये जी ।। २९. लोकाकाश नी श्रेणी प्रभु ! स्यूं,
आदि सहित अंत सहीतो जी? इत्यादिक चिउं भंग नी पृच्छा,
हिव जिन भाखै वदीतो जी । ३०. पादि सहित ने अंत सहित छै, प्रथम भंग ए पायो जी।
शेष तीनूइ भांगा नहीं छै, ए तो छ पाधरो न्यायो जी ।।
२५. अणादीयाओ सपज्ज पसियाओ? अणादीयाओ
अपज्जवसियाओ ? २६. गोयमा ! नो सादीयाओ सपज्जवसियाओ, नो
सादीयाओ अपज्जवसियाओ, २७. नो अणादीयाओ सपज्ज वसियाओ, अणादीयाओ
अपज्जवसियाओ। २८. एवं जाव उड्ढमहायताओ। (श.२५८३)
२९. लोगागाससेढीओ णं भंते ! किं सादीयाओ
सपज्जवसियाओ-पुच्छा।
३०. गोयमा ! सादीयाओ सपज्जवसियाओ, नो
सादीयाओ अपज्जवसियाओ, नो अणादीयाओ सपज्जवसियाओ, नो अणादीयाओ अपज्जव
सियाओ। ३१. एवं जाव उड्ढमहायताओ। (श. २५८४)
३१. एवं जावत ऊची नीची, आयत श्रेणी केणी जी। लोकाकाश श्रेणि आश्रयी आख्या,
हिव अलोकाकाश नी श्रेणी जी ।। वा०-इहां श्रेणि नां विशेष रहितपणां करी प्रश्न पूछयो, पिण लोक नों तथा अलोक नों नाम लेई न पूछ्यो। ते भणी जिका लोक नै विषे पिण श्रेणि छ अनै अलोक नै विषे पिण श्रेणि छ, तेहनों ग्रहण करि । सर्व लोक अलोक नीं श्रेणि ग्रहण करिवा थकी आदी रहित अनै अंत रहित एकहीज, ए चउथो भांगो कहिये । अनै शेष तीन भांगा नथी कहिये। ३२. अलोकाकाश नी श्रेणी प्रभुजी !
स्युं आदि सहित अंत सहीतो जी ? इत्यादि भंग च्यारूं पूछयां, जिन कहै सुण धर प्रीतो जी॥
वा.-'सेढीओ णं भंते ! किं साईयाओ' इत्यादिप्रश्नः, इह च श्रेण्योऽविशेषितत्वाद्या लोके चालोके च तासां सर्वासां ग्रहणं, सर्व ग्रहणाच्च ता अनादिका अपर्यवसिताश्चेत्येक एव भङ्गकोऽनुमन्यते
शेषभङ्गकत्रयस्य तु प्रतिषेधः। (वृ. प. ८६७) ३२. अलोगागाससेढीओ णं भंते ! किं सादीयाओ
सपज्जवसियाओ-पुच्छा।
श० २५, उ० ३, ढा० ४३८ ३९
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