Book Title: Bhagavati Jod 07
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 489
________________ दूहा १. पुलाक निग्रंथ सनातक संज्ञा नहीं, और तीनां में भजना धार । पांच नेयठा आहारीक छ, सनातक भजना विचार ।। २. पांच नेयठां जघन भव एक है, पुलाक निग्रंथ तीन भव जाण । विचे तीन नेयंठा भव आठ है, सनातक पोहचे निरवाण ।। ढाल : ४ (देशी : जगत-गुरु त्रिशला नंदन वीर) १. पांच नेयठा भव आसरी, जघन आवै एक बार विचार । उतकष्टो पुलाक तोन निग्रंथ दोय छ, बिचला तीन प्रत्येक सौ-सौ बार ।। मुनीसर नियंठा मुख धार ।। (ध्रुपदं) २. सनातक एक भव आसरी, जघन उतकष्टो एक बार । पांच नेयठा घणां भवां आसरी आवै, त्यांरो सुणो विस्तार ।। ३. जघन दोय-दोय वेला जाणजो, उतकष्टो पुलाक वेला सात । बिचला तीन प्रतक सहंस वेला जाणजो, निग्रंथ पांच वेलां विख्यात ।। ४. जघन उतकष्टी थित पुलाग नी जी, अंतरमुहर्त जोड़ । च्यारां री जघन एक समा तणी, उतकष्टी देश ऊणी पूर्व कोड़ ।। ५. निग्रंथ री जघन एक समा तणी, उतकष्टी अंतरमुहूर्त जाण । सनातक री जघन अंतरमुहर्त तणी, उतकष्टी देश ऊणी पूर्व कोड़ पिछाण ।। ६. घणां पुलाग आसरी थित, जघन एकसमो जाण । पेहला रो समो छेहलो रह्यो, दुजा रो पहलो लागो आण ।। ७. उतकष्टी अन्तर्महुर्त तणी, छहूं निग्रंथ आश्री पिण इम जाण । च्यार नेयठा सदा काल छ, घणां काल आश्री पिछाण ।। ७. आंतरो पड़े पांच नेयठा तणों, जघन अन्तरमुहर्त जोय । उत्कष्ट अर्ध पुद्गल तणों, सनातक आंतरो नहीं कोय ।। मुनीसर एक जीव आसरी जोय ।। ९. घणां पुलागां आसरी, आंतरो जघन समो एक । उतकष्टो संख्याता वरसां तणों, घणां जीवां आसरी देख ।। १०. च्यार नेयठा घणां जीवां आसरी, आंतरो नहीं छ तास । निग्रंथ जघन एक समा तणों, उतकष्टो छह मास ।। ११. पुलाक में समुद्घात तोन छ, वेदनी कषाय मारणंती जोय । बुकस पडिसेवणा में पांच छै. वेके तेजस बधी दोय ।। १२. कषायकुशील में छह कही, आहारीक बधी साख्यात । निग्रंथ में एको नहीं जी, सनातक में केवल-समुदघात ।। १३. छहूं नेयठा लोक ने असंख्यातमें भागे होय । तथा सनातक सर्व लोक में, समुदघात आसरी सोय । १४. छहूं नेयठा लोक नों जी, फर्श असंख्यातमो भाग । सनातक तथा सर्व लोक में जी, फर्श आकाश प्रदेश लाग ।। १५. च्यार नेयठा खयोपसम भाव छ, उपशम क्षायक निग्रंथ । सनातक क्षायक भाव छ, पछै मुगत सिधावै संत ।। नियंठा नी जोड़, ढा० ४ ४७१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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