Book Title: Bhagavati Jod 07
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 378
________________ ८. से केणठेणं भंते ! एवं वृच्चइ–एगसमइएण वा दुसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा। ९. एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-उज्जुयायता सेढी, एगओवंका, ८. किण अर्थे प्रभुजी ! इम आखियो रे, ___ एक समय करि जेह। दोय समये करिनै यावत वली रे, ___ विग्रह करि उपजेह ? ९. जिन कहै इम निश्चै करि गोयमा ! रे, श्रेणि परूपी सात । उजु-आयता सेढी धुर कही रे, एगओवंका ख्यात ।। १०. दुहओवंका ने एगओखहा रे, दुहओखहा जाण । चक्रवाल ने अधचक्रवाल ही रे, ए सप्त श्रेणि पहिछाण ।। सोरठा ११. मरण स्थान अपेक्षाय, उत्पत्ति स्थानक - विषे । समणि हुवै ताय, ते ऋजु-आयता श्रेणि तब ।। १२. तिण करि जातो जेह, ते एक समय नी गति हुवै । तिणसू एम कहेह, एक समय करि ऊपजै ।। १०. दुहओवंका, एगओखहा, दुहओखहा, चक्कवाला, अद्धचक्कवाला। ११,१२. उज्जुआयताए सेढीए उववज्जमाणे एगसमएण विग्गहेणं उववज्जेज्जा। तत्र 'उज्जुआययाए' त्ति यदा मरणस्थानापेक्षयोत्पत्तिस्थानं समश्रेण्यां भवति तदा ऋज्वायता श्रेणिर्भवति, (वृ. प. ९५६) वा० उज्जु जिवार मरणस्थान अपेक्षाये उत्पत्तिस्थान सम श्रेणि करी हुवै तिवारै उज्जु-आयता श्रेणि हुवै । तिण करिक जातां एक समय नी गति हुवै ते उज्जु-आयता कहिये। सोरठा १३. तथा जिवारे जेह, मरण-स्थान छै तेहथी। उत्पत्ति-स्थान विषेह, एक प्रतरे विश्रेणि ह्र ।। १४. तिका एक थी जोय, वक्र श्रेणि कहिये अछ । दोय समय थी सोय, उत्पत्ति स्थानक ऊपजै ।। १३,१४. एगओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। यदा पुनर्मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानमेकप्रतरे विश्रेण्यां वर्त्तते तदैकतोवक्रा श्रेणिः स्यात् समयद्वयेन चोत्पत्तिस्थानप्राप्तिः स्यादित्यत उच्यते---'एगओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहणमित्यादि, (वृ. प. ९५६,९५७) वा०-तथा जिवारे मरण-स्थानक थकी उत्पत्ति स्थानक एक प्रतर विश्रेणि में वर्त छ, ते एक थी वक्र श्रेणि हुवे। समय बिहुं करी उत्पत्ति-स्थानक प्रतै पामवो हुवे, एतला माटै एगओवंका कहिये । १५. मरण-स्थान थी जान, उत्पत्ति-स्थानक अधस्तन । अथवा उपरितन मान, प्रतर विषे विश्रेणि है। १६. वक्र श्रेणि तब बेह, समय तीन करिने तिको। उत्पत्ति-स्थानक लेह, दुहओवका ते कही ।। १५,१६. दुहओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। यदा तु मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानमधस्तने उपरितने वा प्रतरे विश्रेण्यां स्यात्तदा द्विवक्राश्रेणि: स्यात् समयत्रयेण चोत्पत्तिस्थानावाप्तिः स्यादित्यत उच्यते'दुहओवंकाए' इत्यादि, (वृ. प. ९५७) वा०—जिवार वली मरणस्थान थकी उत्पत्तिस्थान अधस्तन अथवा उपरितन प्रतर नै विषे विश्रेणि हुवे तिवार, दोय वक्र श्रेणि हुवे । एतला मार्ट दुहओवंका कहिये। १७. एक पास नभ तास, एक थकी खहा तिका । बिहु पास आकाश, ते दुहओखहा कही ।। एगओखहा दुहओखहा ३६० भगवतो जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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