Book Title: Bhagavati Jod 07
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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ते
३. जिहां बादर पृथ्वी रहे, स्वस्थानक कहिये तमु, एह
पोता नों स्थान | आथवी
जान ॥
४. आठूं पृथ्वी नैं विषे, जेम स्थान पद बीजा विषे,
५. रत्नप्रभा नें आदि दे, यावत सूक्षम जाण । वनस्पति नांछे जिके, पज्जत्त अपज्जत्त पिछाण || ६. ते सगला ही एकविध, कहिवाय । स्वस्थानादि जे ताय ।।
प्रकृत
पनवणा मांय । आरुयूँ जिम कहिवाय ॥
ओघ थकी विचार
*लय: धूमचूमा पधारो म्हारो
करिकै
७. अविशेष कहितां जिके, जेम तास पर्याप्ता, अपज्जत्त ८. नानात्व भेद रहित ते, जेह आकाश प्रदेश में, ९. तिहिज गगन प्रदेश में अनापत्ता न अर्थ १०. धुर उपपात करी वलि,
ए.
ए.
वृत्ति विषे वृत्ति विषे समुद्घात स्वस्थानक करिनं जिके, सर्व ११. ऊपजवा सन्मुख प्रति कहियै छै मारणांतिक आदि प्रति १२. अर्थ वले स्वस्थान नुं,
कहिये छै जिहां रहे ते समणाउसो अर्थ तनु, हे श्रमण आयुष्मन एकेन्द्रिय जीवों के कर्मप्रकृति का बन्ध और वेदन
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विशेष रहितज पिण
तेह पर्याप्ता अपर्याप्ता
जोय । जिम जोय ॥
आधारजभूत |
सूत ॥
पिण ख्यात ।
विख्यात ।।
जेह ।
करि लोक वह
उपपात ।
समुदघात ।।
स्थान ।
"हो प्रभु ! देवदयाल जी,
म्हांनं भिन्न-भिन्न भेद बताय हो लाल । हो प्रभु ! ज्ञान दिवाकरू,
! जाण ॥
थारा वचनामृत सुखदाय हो लाल ।। (ध्रुपदं ) १३. हे भगवंत ! अपर्याप्ता काइ, सूक्ष्म पृथ्वीकाय हो लाल । कर्मप्रकृति तसु केतली कांइ, आप कही जिनराय हो लाल ? १४. जिन भावं गुण गोयमा !
अष्ट कर्मप्रकृति कही ताय हो लाल । ज्ञानावरणी आदि दे कांइ, यावत ही अंतराय हो लाल ।। १५. एम चउक्क भेदे करी, जिम एकेंद्रिय शत मांय हो लाल । यावत बादर वणस्सइ कांइ,
पज्जत भणी कहिवाय हो लाल ॥ १६. अपर्याप्ता सूक्ष्म मही, किती कर्मप्रकृति बांधत हो लाल ? जिन कहै सतविधबंधका,
अष्टविधबंधक पिण हुंत हो लाल ।।
३. सहाणेणं
सट्टाणेणं' ति स्वस्थानं यत्रास्ते बादरपृथिवीकायिकस्तेन स्वस्थानेन स्वस्थानमाश्रित्येत्यर्थः
(बृ. प. ९६१)
४. अट्ठसु पुढवीसु जहा ठाणपदे 'जहा ठाणपदे' त्ति स्थानपदं च प्रज्ञापनाया द्वितीयं पदं ( वृ. प. ९६१ ) ५. जाव सुहुमवणस्सइकाइया जे य पज्जत्तगा जे य
अपज्जतगा
६. ते सव्वे एगविहा
'एगविह' त्ति एकप्रकारा एवं प्रकृतस्वस्थानादिविचारमधिकृत्योघतः (बृ. प. ९६१)
७९. अविसेसमणाणत्ता 'अविसेसमणाणत' त्ति अविशेषाः विशेषरहिता यथा पर्याप्तकास्तथैवेतरेऽपि 'अणाणत्त' त्ति अनानात्वा :- नानात्ववर्जिताः येष्वेवाधारभूताकाश प्रदेशेष्वेके तेष्वेवेतरेऽपीत्यर्थः (बु.प. ९६१)
१०- १२. सब्बलोग रियावन्ना पण्णत्ता समणाउसो ! (२४०२३) 'परियावन्नति उपपातसमुद्घातस्वस्थानैः सर्वलोके वर्त्तन्त इति भावना, तत्रोपपातउपपाताभिमुख्यं समुद्धात इह मारणान्तिकादि स्वस्थानं तु यत्र ते आसते । (बु. प. ६५१)
१२. विकाइया भये कति कम्पपगडीओ पण्णत्ताओ ?
१४. गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहानाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं ।
सु
१५. एवं चक्कर मे जहेव एगिदियसए भेदेणं जाव बादरवणस्स इकाइयाणं पज्जत्तगाणं ।
(२४०३४) कति
१६. विक्काइमा णं भंते! कम्मप्पगडीओ बंधति ?
गायमा ! सत्तविहबंधगा वि, अट्ठविहबंधगावि
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श० ३४, श० १, ढा० ४८८
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