Book Title: Bhagavati Jod 07
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 398
________________ ४०. गोयमा ! अत्थेगइया तुल्ल द्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति, ४१. अत्थेगइया तुल्ल द्वितीया वेमायविसे साहियं कम्म पकरेंति, ३९. पूर्वकाल नां जाण, बद्ध कर्म तास अपेक्षया । विशेष अधिक पिछाण, बांध कर्म जे जीवड़ा । (ए चतुर्थ भंग) ४०. *जिन कहै केतला एक जे कांइ, तुल्य स्थितिका जेह हो लाल । तुल्य विशेषाधिक जिके कांइ, कर्म प्रतै बांधेह हो लाल । ४१. जीव केतलाइक वली कांइ, तुल्यस्थितिका जेह हो लाल । विषम मात्र विशेषाधिक जिके कांइ, कर्म प्रत बांधेह हो लाल ।। ४२. केतलाइक जे जीवड़ा, विषम मात्र आयुवंत हो लाल । तुल्य विशेषाधिक जिकै काइ, कर्म प्रतै बांधत हो लाल ।। ४३. जीव केतलाइक वली कांइ, विषम मात्र आयुवंत हो लाल । विमात्र विशेषाधिक जिके काइ, कर्म प्रतै पकरत हो लाल ।। ४४. ते किण अर्थे प्रभु ! इम कह्य, केई तुल्यस्थितिका जोव हो लाल । जाव विमात्र विशेष अधिक जिके, कांइ बांधै कर्म अतीव हो लाल । ४५. जिन भाखै एकेन्द्रिया कांई, आख्या चिहुंविध जन्न हो लाल । केई समआउखावंत जे, अनैं समकाले ही उत्पन्न हो लाल ।। ४६. जाव केतलाइक वली कांइ, विषम आउखावंत हो लाल । अने विषम काले ते ऊपनां कांइ, एतला लगै कहंत हो लाल ।। ४२. अत्थेगइया वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति, ४३. अत्थेगइया वेमायद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति । (श. ३४।३९) ४४. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया तुल्ल द्वितीया जाव वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति ? ४५,४६. गोयमा ! एगिदिया चउम्विहा पण्णत्ता, तं जहा----अत्थेगइया समाउया समोववनगा, अत्थेगइया समाउया विसमोववनगा, अत्थेगइया विसमाउया समोववन्नगा, अत्थेगइया विसमाउया विसमो ववन्नगा। ४७. तत्थ णं जे ते समाउया समोववनगा ते णं तुल्ल द्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति । ४७. तिहां समआउखावंत हो, सम काले ऊपनां जेह हो लाल । ते तुल्यस्थितिका जाणवा, तुल्य विशेषाधिक कर्म बांधेह हो लाल ।। सोरठा ४८. सम-आउखावंत, समकाले हिज ऊपनां । ए तुल्यस्थितिका हुंत, समान आयु ते भणी ।। ४९. समान उत्पन्न करेह, माहोमांहि अपेक्षया । समान योगपणेह, कर्म समानज ते करै ।। ५०. फुन पूर्व कर्म अपेक्षाय, सम अथवा जे हीन प्रति । तथा अधिक जे ताय, करै कर्म प्रति जीवड़ा। ५१. जो अधिक कर्म पकरेह, तदा विशेषाधिक अपि । मांहोमांहि करि तेह, तुल्य विशेषाधिक कह्या ।। ५२. पिण विशेषाधिक न कहाय, इण कारण थो इम कह्यो । तुल्य विशेष अधिकाय, कर्म प्रत बांधे तिको । ५३.*तिहां सम आउखावंत ही, विषम काले ऊपनां जेह हो लाल । ते तुल्यस्थितिका जाणवा, विमात्र विशेषाधिक कर्म बांधेह हो लाल ।। *लय : घूमघूमालो घाघरो म्हारी ४८,४९. 'समाउया समोववन्नग' त्ति समस्थितयः सम कमेवोत्पन्ना इत्यर्थः, एते च तुल्यस्थितयः समोत्पन्नत्वेन परस्परेण समानयोगत्वात्समानमेव कर्म कुर्वन्ति, (वृ. प. ९६१) ५०. ते च पूर्वकर्मापेक्षया समं वा हीनं वाऽधिकं वा कर्म कुर्वन्ति, (वृ. प. ९६१) ५१. यद्यधिकं तदा विशेषाधिकमपि तच्च परस्परतस्तुल्यविशेषाधिक (व. प. ९६१,९६२) ५२. न तु विशेषाधिकमेवेत्यत उच्यते तुल्यविशेषाधिकमिति, (वृ. प. ९६२) ५३. तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते णं तुल्ल द्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । ३८० भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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