Book Title: Bhagavati Jod 07
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 400
________________ दूहा १. प्रथम उद्देशे अर्थ थी, आरूपो अप क्रम द्वितीय उद्देश ते, अनंतरोपपत्रक एकेन्द्रिय जीवों के २. कतिविध हे भगवंतजी ! एकेंद्रिया परूपिया ? जिन ढाल : ४८९ अति अनंतरोत्पन्न अधिकार । धार || *लय इन्द्र कहै नमिराय नें ३८२ भगवती जोड़ प्रकार, स्थान आदि अनंतरोत्पन्न कहै पंच ताय । जाव ३. पृथ्वीकायिक आदि दे द्विपद भेद करि जिम एकेंद्रिय शत विषे, बादर तरुकाय ॥ वा० अनंत एकेन्द्रिय अधिकारी अनंतशेप में पर्याप्तकपणं नां अभाव थकी अपर्याप्ता थका ने सूक्ष्म अर्न बादर ए दोनूंह पद नों भेद जिम एकेंद्रिय शतक नैं विषे यावत वादर वनस्पतिकायिक कह्या एतला लगे कहिवो । Jain Education International धार । प्रकार ।। ४. हे भगवंत ! किहां कह्या, बादर पृथ्वीकाय नां ५. जिन कहै स्व स्थानक करी, * जोजो रे ज्ञान जिनेंद्र नौं । (धुपदं अनंतरोत्पन्न ताह्यो रे । स्थानक तेह बतायो रे ? पृथ्वी आठ विषेहो रे । रत्नप्रभा ने आदि दे, तिम ठाग पदे का हो रे । ६. जिम पावण ने बीजे पदे, आयो तिम कहिवायो रे । जिम यावत द्वीप समुद्र विषे, पाठ इहां लग आयो रे ।। ७. इहां अनंतरोपपन जिके, बादर पृथ्वीकायो रे । तेनां स्थानक आखिया, इम भाखे जिनरायो रे ।। प. उपपाते करिने जिके, सर्व लोक ने मांह्यो रे । वाटे वहितां पामिये मध्यवर्ती गति करि जायो रे ।। वा० -उपपाते करी सर्व लोक नैं विषे किम तत्रोत्तरं—उपपात सन्मुख करी अपांतराल गति प्रवृत्ति थकी इत्यर्थः । ९. तथा मारणांतिक समुद्घात करि, सर्व लोक ₹ मांह्यो रे । पूठला भव नीं अपेक्षया वृत्ति विषे इस वायो रे ।। वा० - तथा समुद्घात एतले - मारणांतिक समुद्घाते करी सर्व लोक नैं विषं उपपात अने मारणांतिक समुद्घात - ए बिहुं करी अतिबहुपणां थकी सर्व लोक नै विषे व्यापी नै रहे । इहां इसी स्थापनाये करीनें भावना करवी - २. कइविहा गं भंते! अणंतरोववन्नगा एगिंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा अणतरोववन्नगा एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा - बादरवणस्स इकाइया य । २. विकाइया मामेदो जहा एमिडिया (म. २४/४२) वा० 'दुवामेदो' सि अनन्तरोपपन्नन्द्रियाधिकारादनन्तरोपपन्नानां च पर्याप्तकत्वाभावादपर्याप्तकानां सतां सूक्ष्मा बादराश्चेति द्विपदो भेदः, (बु. प. ९६३) ४. कहि णं भंते ! अणंतरोववन्नगाणं बादरविकाइया ठाणा पत्ता? ५. गोयमा ! सद्वाणेण अट्ठसु पुढवीसु तं जहा रयणप्पभाए जहा ठाणपदे ( प. २१) ६. दो समु ७. एत्थ अतरोपवनगाणं दादरपुढ विकाइवान णं ठाणा पण्णत्ता, ८. उववाएणं सव्वलोए । वा० उदवाएणं सव्वलोए समुन्याएवं सम्यलोए ति कथम् ? 'उपपान' उपपाताभिमुख्येनापान्तराजमतिवेत्वर्थ: : (बृ. प. ९६३) 1 ९. समुन्याणं सव्वलोए । For Private & Personal Use Only वा० - समुद्घातेन मारणान्तिकेनेति, ते हि ताभ्यामति बहुत्वात्सर्वलोकमपि व्याप्य वर्त्तन्ते इह विभूतया स्थापनया भावना कार्या www.jainelibrary.org

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