Book Title: Bhagavati Jod 07
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 405
________________ norant आदि एकेन्द्रिय के प्रकार, स्थान आदि दूहा २. १. कृष्णलेशी एकेंद्रिया, कतिविध हे भगवंत ? जिन है पंचविधे कह्या, कृष्णलेशी एकेंद्रिय जंत ॥ • भेद चउक्क करिने जिके, कृष्णलेशी एकेंद्री शत मांय । जेम का तिम आखवूं जाव वनस्पतिकाय || ३. कृष्णलेशी अपर्याप्ता, सूक्ष्म मही भदंत ! आ रत्नप्रभा पृथ्वी तणां पूर्व नं चरिमंत || ४. इम इण अभिलापे करो, जिम ओघ उद्देशक जेह | जाव लोक चरिमांत इम, कहिवूं सगळं तेह || ५. सगले ही उपजाविवो, लेश्या कृष्ण विषेह वारू वर उपयोग सूं, न्याय करीने जेह ॥ * जय जय ज्ञान जिनेंद्र नों॥ ( ध्रुपदं ) जिके, कृष्णलेशी ताम । स्थान परूप्या स्वाम ? जिम ओधिक उददेश । सेवं भंते! जिनेश || ढाल : ४९० ६. हे भगवंत ! किहां अपज्जत्त बादर मही तणां ७. इम इण अभिलापे करी, जाव तुल्यस्थितिका लगे, ८. इम इस अभिलापे करी, प्रथम श्रेणि शत जेम तिमहिज ग्यार उद्देशका, ते भगवा धर प्रेम ॥ ।। इति ३४।२।१-११॥ ९. इम नील लेश्या संघात ही तृतीय शतक कहिवाय । इमज कापोत संघात ही, तुर्य शतक एथाय ॥ १०. भवसिद्धिक एकेंद्रिय, संपाते सुविचार | उदार ॥ पंचम शतक कहोजिये, श्री जिन वचन ।। इति ३४६३-५।। ११. प्रभु ! कतिविध कृष्णलेशी जिके, भव्य एकेंद्रिय ताय । इम जिम अधिक उद्देश आयो तिम कहिवाय ॥ १२. कतिविध हे भगवंतजी ! अनंतरोत्पन्न जात । , । कृष्णलेशी भवसिद्धिया, १३. जिमन अनंत रोत्पन्न तणों, आख्यो तिमाहिज रीत सूं १४. कतिविध हे भगवंतजी एगिंदिया आख्यात ? अधिक जेह उद्देश । कहियो सुविशेष ॥ परंपरोत्पन्न जात कृष्णलेशी भवसिद्धिया, एगिंदिया आख्यात ? *लय वैरागे मन वाली : Jain Education International १. कइविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा एगिंदिया पण्णत्ता ? मोयमा | पंचविह कहलेस्सा एविदिया पणत २. भेदो चउक्कओ जहा कण्हलेस्सए गिदियसए जाव areeइकाइयत्ति | (रा. ३४१५५) ३. कहले अपताकाणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले ? ४. एवं एएवं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देसओ (३४/२-३२) जाव लोगरिमतेति । ५. सव्वत्थ कण्हलेस्सु चेव उववाएयव्वो । (श. ३४।५६ ) ६. कहि णं भंते! कण्हलेस्सअपज्जत्ताबादरपुढविक्काइयाणं ठाणा पण्णत्ता ? ७. एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहि (३४।३३-४१ ) जाव तुल्लट्ठइयत्ति । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति । ८. एवं एएवं अभिलावेगं जहेब पह (२४४२-४९) व एक्कारस उगा भागिववा (श. ३४१५९) For Private & Personal Use Only (श. ३४१५७ ) (श. ३४/५८ ) सेसिय ९. एवं नीललेस्सेहि वि सतं । काउलेस्सेहि वि सतं एवं चेव । १०. भयसिद्धिएगिदिए। (श. ३४/६० ) १२. कइ विहा णं भंते ! अनंतरोववन्ना सिद्धिया एगिंदिया पण्णत्ता ? १३. जहेव अताउ (३४१४२-४९) तब | १४ कनिहा भंते! परंपरोययन्ना सिद्धिया एगिंदिया पण्णत्ता ? ११. कइविहा णं भंते! कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पण्णत्ता ? जहेव ओहिउद्देसओ (३४।१-४१ ) (श. ३४/६१ ) कण्हलेस्सा भव ओहियो (. ३४०६२) कष्टलेस्सा भय ० ३४ ० ४९० ३८७ www.jainelibrary.org

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