Book Title: Bhagavati Jod 07
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 370
________________ २१. एवं एएणं ओभिलावेणं जहेव ओहिओ परंपरोववन्नग उद्देसओ तहेव जाव वेदेति । २२. एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिएगिदियसए एक्कारस उद्देसगा भणिया। २३. तहेव कण्हलेस्ससते वि भाणियब्वा जाव अचरिम चरिमकण्हलेस्सा एगिदिया। (श. ३३।४३) २१. मातिय २४. जहा कण्हलेस्सेहि भणियं एवं नीललेस्सेहि वि सयं (श. ३३।४४) सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति। (श. ३३।४५) सवं भते २५. एवं काउलेस्सेहि वि सयं भाणियब्व, नवरं काउलेस्से ति अभिलादो भाणियब्यो। (श. ३६।४६) २१. इम इण अभिलापे करी रे हां, जिमहिज ओधिक जेह । परंपरोत्पन्न उद्देशके रे हां, तिमहिज जाव वेदेह ।। २२. इम इण आलावे करी रे हां, जिमहिज ओधिक जाण । एकेंद्रिय शतके कह्या रे हां, ग्यार उद्देश पिछाण ।। २३. तिमहिज कहिवा छै इहां रे हां, कृष्णलेशी शतकेह। यावत अचरिम जाणवा रे हां, __कृष्णलेशी एकेंद्रिय एह ।। ॥इति ३३।२।३-११॥ नीललेश्यी एकेन्द्रिय के कर्मप्रकृति २४. जिम कृष्णलेश्या संघाते शत कह्यो रे हां, इम नीललेश्या संघात । कहिवं शतकज तीसरो रे हां, सेवं भंते ! नाथ ।। ॥इति ३३॥३॥ कापोतलेश्यो एकेन्द्रिय के कर्म प्रकृति २५. इम कापोतलेश्या संघात ही रे हां, भणिवू शत संलाप। णवरं कापोतलेश्या इसो रे हां, ___कहि नाम अभिलाप ।। ॥इति ३३॥४॥ भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के प्रकार २६. कतिविध हे भगवंतजी ! रे हां, भवसिद्धिक छै जेह । एकेद्रिया परूपिया रे हां? हिव जिन उत्तर देह ।। २७. भवसिद्धिक एकेद्रिया रे हां, दाख्या पंच प्रकार । पृथ्वीकायिक आदि दे रे हां, जाव वनस्पति धार ।। २८. सूक्ष्म बादर जाणवा रे हां, पर्याप्त अपर्याप्त । भेद च्यार ए जेहनां रे हां, जाव वनस्पति आप्त ।। भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के कर्मप्रकति २९. भवसिद्धिक भगवंतजी ! रे हां, अपर्याप्त छै जेह। सूक्ष्म पृथ्वीकायिका रे हां, कति कर्मप्रकृति तसु लेह ? ३०. इम इण अभिलापे करी रे हां, जिमहिज प्रथम पिछाण । एकेंद्रिय शत आखिया रे हां, तिम भवसिद्धि शत पिण जाण ।। ३१. परिपाटी उद्देशा तणी रे हां, तिमहिज कहिवी ताम । यावत अचरिम लग सहु रे हां, सेवं भंते ! स्वाम ।। ॥इति ३३॥५॥ २६. कतिविहा णं भंते ! भवसिद्धीया एगिदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! २७. पंचविहा भवसिद्धीया एगिदिया पण्णत्ता, तं जहा पुढविक्काइया जाव वणस्स इकाइया, २८, भेदो चउक्कओ जाव वणस्सइकाइयत्ति । भंते ! २९. भवसिद्धीयअपज्जत्तासुहमपुढविक्काइयाणं कति कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? ३०. एवं एएण अभिलावेण जहेव पढमिल्लगं एगिदियसयं तहेव भवसिद्धीयसयं पि भाणियव्वं । ३१. उद्देसगपरिवाडी तहेव जाव अचरिमो त्ति । (श. ३३।४८) सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति। (श. ३३१४९) ३५२ भगवती जोड़ Jain Education Intenational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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