Book Title: Bhagavati Jod 07
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 351
________________ शुल्लक युग्म कृष्णलेश्वी नेरयिकों का उपपात , * क्षुल्लक युग्म अर्थ सांभलो ।। (धुपदं ) ४. हे प्रभुजी ! कृष्ण ने ही बुल्लक युग्म छे जेहो जी नारकि किहां की ऊपजे ? हिव जिन उत्तर देहों जी ॥ ५. इम जिम अधिक गम विषे आयो तिम कहिवायो जी। ऊपजवूं नहि थायो जी ॥ जैम पत्रवणा माह्यो जी। तेम इहां कहिवायो जी ॥ किहां थकी उपजतो जी ? शेष तिमज वृतंतो जी ॥ यावत पर प्रयोगे करी, ६. वरं तसु उपपात जे व्युत्क्रांतिक छठे पदे, ७. धूमप्रभा मही नारकी, इत्यादि पत्रवण जिम इहां, वा० 'धूमपहपुढवीयामिति इहां कृष्णलेश्या प्रांत बली विका कृष्णलेश्या धूमप्रभा ने विषे हुवै इति ते धूमप्रभा ने विषे जे जीव ऊपजं तेहनोंईज उत्पाद कहियो । वली ते असन्नी १, सरीसृप २, पक्षी ३, सिंह ४ दर्जी ने एतले असन्नी तिथंच पहिली नारकि में ऊपजै १ सरिसृप ते भुजपर दूजी में ऊपजै । पक्षी तीजी में ऊपजे ३ । सिंह चउथी में ऊपजै, ४ पिण आगल न ऊपजै । 1 ते मार्ट असन्नी प्रमुख नों उत्पाद वर्ज्यो शेष तिमज । कृष्णलेशी हो जी प्रभु ९. इमहि ते कहिवो सहु, एम अधोसप्तमी विषे १०. णवरं तसु उपपात जे किहां थकी उपजे हो जी ? तमा विषे पिण एमो जी । पूर्व भाथ्यो तेमो जी ॥ सर्व विषे पहिछाणी जी । जिम पत्रवण छठे पदे, दाख्यो तिमहिज जाणी जी ।। ११. हे प्रभुजी | कृष्ण लेश ही, क्षुल्लक तेयोग छ तेही जी। नारकी किहां थकी ऊपजै ? एवं चेव कहेहो जी ॥ १२. नवरं त्रिण सप्त ग्यार हो, पनर संखेज असंखो जी । शेष तिमज कहिवो सहु, ! इम जाव सप्तमी पिण अंको जी ॥ १३. हे प्रभुजी ! कृष्णनेश ही, ८. धूमप्रभा पृथ्वी तणां खुडाग कडजुम्म नारकी, ! क्षुल्लक दावरजुम्म जेहो जी । नारकि किहां थकी ऊपजै ? एवं चेव कहेहो जी ॥ १४. वरंबे षट दश तथा चवदं शेष तिमहीजो जी | इम धूमप्रभा विषे अपि, जाव अधोसप्तमी पिण लीजो जी ॥ १५. हे प्रभुजी ! कृष्णलेस ही, क्षुल्लक कल्योग छे हो जी। नारकि कहां थी ऊपजे ? एवं चैव कहेहो जी ॥ १६ वरं एक पंच नव तथा तेरै संख असंयो जी। शेष तिमज कहिवो सहु, इम धूमप्रभा पिण अंको जी ॥ *लय खुसालांजी मन चितवं Jain Education International ४. कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? ५. एवं चैव जहा ओहियगमो जाय तो परप्ययोदेणं उववज्जंति, ( प. ६/७७) ६. नवरं जहा यक्कतीए - ७. धूमप्यभावुरिया से चैव 7 (. ३१/१२) वा. - ' उववाओ जहा वक्कंतीए धूमप्पभापुढविनेरइयाणं' ति इह कृष्णलेश्या प्रक्रांता सा च धूमप्रभायां भवतीति तत्र ये जीवा उत्पद्यन्ते तेषामेबोत्पादों वाच्यः, ते चासञ्ज्ञिसरीसृपपक्षिसिंहवज इति । ( वृ. प. ९५० ) ८. धूमाभापुविकाकडम्मरइया न भंते ! कओ उववज्जंति ? ९ एवं निरवसे एवं तमाए वि, महेनतमाए वि, १०. नवरं – उववाओ सव्वत्थ जहा वक्कंतीए ( प. ६/७७50 ) 1 (स. ३१।१३) ११.मराठे को उववज्जंति ? एवं चेव, १२. नवरं - तिष्णि वा सत्त वा एक्कारस वा पन्नरस वा संखेज्जा वा असखेज्जा वा, सेसं तं चैव । एवं जाव असत्तमा वि। (श. ३१।१४ ) १३. कण्हलेस खुड्डु गदावरजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति ? एवं चेव, १४. नवरं दो वा छ वा दस वा चोट्स वा, सेसं तं चेव । एवं धूमप्पभाए वि जाव असत्तमाए । (. २१/१५) १५. कण्हलेस्सखुड्डाग कलियोगनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं चेव, For Private & Personal Use Only १६. नवरं – एक्को वा पंच वा नव वा तेरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा, सेसं तं चेव । एवं धूम्मप्पभाए वि, श० ३१, उ० २, ढा० ४८१ ३३३ www.jainelibrary.org

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