Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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१२१. अवर्ण अप्रसिद्धि मात्र, इक दिशगामी विमात्र, १२२. * बहु असत्य अर्थ नों माण,
तसु कारक अवर्णकरा । अप्रसिद्धि अकीति हूं ॥
प्रगट करिव करि पहियाण ।
मिथ्यात्व नां उदय थकी अवधार,
अभिनिवेश कदाग्रह करिनें तिवार ।।
१२३. आतम फुन पर उभय प्रतेह
विरुद्धपणुं करवूं अधिकेह | दग्ध बीज जिम करतो ताय ।।
दुर्लभ बोधिपणुं कहिवाय, १२४. वह वर्ष चारित्र पर्याय
पाल पाली में ते ताय । अणपडिकमियै पिण ते जोय ॥ यां हिं माहिलो एक निहाल । ते अन्यतर किल्विष सुर मांय किल्विष सुरणें उपजे जाय ।। १२६. ते जिम छै तिम कहिये तेह, तीन पल्योपम स्थितिक विषेह । अथवा त्रिण सागर स्थितिकेह, तथा तेर सागर स्थितिक विषेह ||
ते स्थानक नैं अणआलोय, १२५. काल ने समय करीनें काल,
१२७. सुर किल्विषक हे भगवान! ते सुरलोक थकी पहिछान ।
आयु क्षय भव क्षय करि आम, स्थिति क्षय करिने ते सुर ताम । १२. अंतर रहित चवी किहां जाय, किण स्थानक से उपजे ताय ? जिन कहे जाव चत्तारि पंच नारक तिरि मनु सुर भव संच ॥
,
१२. संसार भ्रमण करीनें जेह, तठा पछै सी बुह । जावत अंत करें अवलोय के किल्मिपिका एहवा होय ॥ १३०. केयक आदि रहित ते धार, अंत रहित पिण तेह विचार । दीर्घ अढा चिहुं गति संसार अटवी मांहे भनिराधार ।। १३१. हे प्रभुजी ! जमाली अनगार, अरस आहार मो कारक धार
विरस आहार तणो करणहार, अंताहारि पंत आहारि विचार || १३२. लुक्ख आहारी तुच्छ आहारी जेह, अरस आहार करिने जीवेह |
यावत तुच्छ आहार करि जाण, जीविवानुं तनु शील पिछाण ॥ १३३. उपशांत अंतर्वृत्ति करेह, जीविवा नुं तसुशील सुलेह । इमहिज प्रशांत वृत्ति हुंत, णवरं बाहिर वृत्ति प्रशंत ॥
१३४. विवित्तजीवी ते स्त्रियादि
रहीत, सेज्या संथारा नौ भोक्ता संगीत ।
जिन कहै हंता गोयम ! बार,
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अरस आहार जमाली अणगार ॥ वलि पूछे गोयम ऋषिराय । अरस आहारी ते अवधार ॥
१३५. जाब विवक्तजीवी कहिवाय,
जो प्रभुजी ! जमाली अणगार,
*लय : मेरी खिण गई, लाखीणी रे मेरी खिण २१० भगवती जो
१२१. अवर्णत्वप्रसिद्धिमात्रम्, अकीत्तिः मिम्पप्रसिद्धिरिति
पुनरेकदिग्गा
( वृ० प० ४५६, ४६० ) १२२. भावणाहि मिच्छत्ताभिनिव
१२३. अपरं च तदुभयं च म्हामाणा बुध्याएमाया
१२४. बहू बसाई सामरियागं पाठति, पाठणिता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता
१२४. कानमा कार्य किन्वा अणवरेषु देवकिपिसिए देवकिवियित्ताए उपवत्ता भवंति
१२६. तं जहातिपलिओवमट्ठितिएसु वा तिसागरोवमट्ठितिएसु वा तेरससागरोवमट्ठितिएसु वा ।
( श० ९।२४० ) १२७. देवकिव्विसिया णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउ क्खणं, भवक्खएणं, ठितिक्खएणं
१२८. अनंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छति ? कहि उववज्जंति ?
गोयमा ! जात्र चत्तारि पंच नेरइय- तिरिक्खजोपिय-मगुस्स देवभवम्महगाई
१२. संसारं परिट्टता तो पच्छा सिति बुज्झति जाब (सं० पा०) अंत करेति
पाउ
१०. गतिया अणावीय अणनदीम संसार-तारं अणुपरिपति । ( ० ९२४१) १३१. जमाली णं भंते! अणगारे अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे
१२२. तूहाहारे तुच्छाहारे अरमजीवी जाव (सं०पा० ) तुच्छीवी
१३३. उवसंतजीवी पसंतजीवी
'संवित्ति उपास्य जीवतीत्येवं शील उपशान्तजीवी एवं प्रशान्तजीवी नवरं प्रशान्तो बहिया ( वृ० प० ४६० )
१३४. विवित्तजीवी ?
हंता गोयमा ! जमाली णं अणगारे अरसाहारे विरसाहारे
'विविसी त्ति इविवि वितइति ।
प्रादिसंसक्तावना
( वृ० प० ४९० )
१३५. जाव विवित्तजीवी ।
( ० २०२४२)
जति णं भंते ! जमाली अणगारे अरसाहारे विरसा
हारे
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