Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 377
________________ १८०. बार शाखा जे अनूप, वली पूतलिया नां रूप। वली रूप सर्प नां तेह, मयूर पिच्छ करी पूंजेह ॥ १८१. दिव्य उदक धारा सींचेह, सरस गोशीर्ष चंदन चर्चेह । फूल चढावे ताय, जाव आभरण गेहणा चढाय ।। १८२. मांडी बार शाखा थी जेह, नीचली भूमि लगेह । बांधे लंबायमान पुष्पमाला, जाव धूप दिये सुविशाला ।। १८३. जिहां दक्षिण द्वार नों देख, मुख मंडप छै सुविशेख । जिहां दक्षिण नां मुख मंडप नों चंग, बहु मझ देश भाग सुरंग ॥ १८४. तिहां आवै आवी नै, मोर पिच्छ नी पूंजणी ग्रही नैं। बहु मज्झ देश भाग प्रतेह, मयूर पिच्छ करी पूंजेह ।। १८५. दिव्य उदक धारा सींचेह, आले गोशीर्ष चंदन करेह ।। पंचांगुलि तल हाथा देह, वलि मंडल प्रति आलिखेह । १५०. दारचेडाओ य सालभंजियाओ य वालरूवए ये लोमहत्थएणं पमज्जइ (राय० वृ० प० २६०) दारचेडाओ-द्वारशाखे (रायः सू० २६४) १८१. दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, दलइत्ता पुष्फारुहणं जाव आभरणारुहणं करेइ। (राय० सू० २६४) १८२. आसत्तोसत्तविउल-बट्ट-वग्घारिय-मल्ल-दाम-कलावं करेइ, जाव (सं० पा०) धूवं दलयइ । (राय० सू० २६४) १८३. जेणेव दाहिणिल्ले दारे मुहमंडवे जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए (राय० सू० २६५) १८४. तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परा मुसइ, परामुसित्ता बहुमज्झदेसभाग लोमहत्थेणं पमज्जइ, (राय० सू० २६५) १८५. दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलं मंडागं आलिहइ (राय० सू० २६५) १८६. कयग्गह-गहिय जाव (सं० पा०) धूवं दलयइ। (राय० सू० २६५) १८७. जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स पच्चत्थिभिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परामुसइ, परामुसित्ता (रायः सू० २६६) १८८. दारचेडाओ य सालभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थेणं पमज्जइ, (राय० सू० २६६) १८६. दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, दलयित्ता पुप्फारुहणं जाव आभरणारुहणं करेइ। (राय० सू० २६६) १६०. आसत्तोसत्त जाव (सं० पा०) धूवं दलयइ । (राय० सू० २९६) १८६. केश ग्रही छोड़े दृष्टंत, फूल-फगर करै धर खंत । जावत धूप उखेव, त्यां लग पाठ कहेव ।। १८७. जिहां दक्षिण नां मुख मंडप नों विचार, पश्चिम नों छै द्वार। तिहां आवै आवी ने, मयूरपिच्छ नी पूंजणी ग्रही नैं । १८८. बार शाखा जे अनूप, वली पुतलिया नां रूप । वली रूप सर्प नां तेह, मयूरपिच्छ करि पूंजेह ।। १८९. दिव्य उदक धारा सींचेह, सरस गोशीर्ष चंदन चर्चेह । फल चढावै ताय, जाव आभरण गेहणा चढाय ।। १९०. मांडो बार-शाखा थी जेह, नीचली भूम लगेह । बांधै लंबायमान पुष्पमाला, जाव धूप दियै सुविशाला ॥ ___ *ए स्वर्ग-स्थिति कोइ विरला ही जाण ॥ १६१. जिहां दक्षिण नां मुख मंडप नै, उत्तर नां थांभा नी पंती। तिहां आवै आवी मयूरपिच्छ नी, पूंजणी ग्रहै शोभंती॥ १९२. थंभ अ. वलि पूतलियां नैं, सर्प नां रूप प्रतेह। मयूरपिच्छ नी पूंजणी करने, पूंजै पूंजी तेह ।। १६३. तिमहिज जिम कह्य, पश्चिम दिशिनां द्वार तणी पर जाणी। जावत धूप उखेवै सुरपति, त्यां लग पाठ पिछाणी ॥ १९४. जिहां दक्षिण नां मुख मंडप में, पूर्व दिशि ने द्वार। तिहां आवै आवी मयूर पिच्छ नी, पूंजणी ग्रहै तिहवार ।। १६१. जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंड वस्स उत्तरिल्ला खंभपंती तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थं परामुसइ, (राय० सू० २६७) १६२. खंभे य सालभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थ एणं पमज्जइ, पमज्जित्ता (राय. सू० २६७) १६३. जहा चेव पच्चथिमिल्लस्स दारस्स जाव धूवं दलयइ, (राय० सू० २६७) १९४. जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडबस्स पुरथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परामुसति, (राय० सू० २६८) *लय : पर नारी नो संग न कीज २०१०, उ० ६. ढाल २२४ ३६१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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