Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 431
________________ आह च मंगलं प्रतीत्य द्रव्यलक्षणम् । आगमओऽणुवउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ वत्ता। तन्नाणलद्धिजुत्तो उ नोवउनोत्ति दव्वं ।। ते नोआगमतस्तु ज्ञशरीर-भव्यशरीर-तद्व्यतिरिक्तभेदात् त्रिविधः, तत्र लोकशब्दार्थज्ञस्य शरीरं मृतावस्थं ज्ञानापेक्षया भूतलोकपर्यायतया घृतकुम्भवल्लोक: स च ज्ञशरीररूपो द्रव्यभूतो लोको ज्ञशरीरद्रव्यलोकः, नोशब्दश्चेह सर्वनिषेधे कहिये । मंगल शब्द आश्रयी द्रव्य न लक्षण भाष्यकार कहै छ अनुपयुक्त कहितां मंगल शब्द नां अर्थ नै विषे उपयोग रहित । मंगल शब्द नों अनुवासित—भावित एहवो वक्ता आगम थकी द्रव्य मंगल कहिये । ज्ञान लब्धि युक्त मंगल शब्द नै विषे अनुपयुक्त, इण हेतु थकी आगम थकी द्रव्य' मंगल कह्यो। ____ अने नोआगम थकी द्रव्य तीन प्रकारे-जाणक शरीर, भव्य शरीर, जाणक शरीर भव्य शरीर थकी ब्यतिरक्त-एवं त्रिविध । तिहां लोक शब्द नां अर्थ नौं जाण, तेहनों शरीर मृत अवस्था में ज्ञान अपेक्षा कारकै भूत--अतीत काले लोक शब्द नां अर्थ नों जाण हुँतो तेणे करी। जिम ए घृत नो घड़ो हुँतो ते घृत काढ्यां पछ पिण घृत नों घड़ो कहै । तिम लोक शब्द नां अर्थ नों जाण हुँतो, तेहनों ए शरीर छ, ते जाणवावाला नों शरीर द्रव्य रूप । ते भणी जाणक शरीर द्रव्य लोक कहिये। नोआगम थकी द्रव्य लोक नों ए प्रथम भेद । इहां नो शब्द सर्व निषेध नै विषे । तथा लोक शब्द नों अर्थ जाणस्य जे जीव, ते जीव नों शरीर चेतन सहित भावि लोकपर्यायपणे करी, मधु घटवत । ए मधु घड़ो थास्य । तेहनी पर ए लोक शब्द नां अर्थ नों जाणणहार थास्यै ए भव्यशरीर द्रव्य लोक । नो शब्द इहां पिण सर्व निषेधहीज।। हि जाणक शरीर भविक शरीर थी व्यतिरिक्त द्रव्य लोक कहिय छजीव-अजीव, रूपी-अरूपी, सप्रदेश-अप्रदेश वली नित्य-अनित्य जे द्रव्य छ, ए द्रव्य प्रतै हे शिष्य ! तूं जाण । इहां पिण नो शब्द सर्व निषेध नै विषे आगम शब्दवाची ज्ञान में सर्वथा निषेध थकी। इति द्रव्य लोक । तथा लोकशब्दार्थं ज्ञास्यति यस्तस्य शरीरं सचेतन भाविलोकभावत्वेन मधुघटवद् भव्य शरीरद्रव्यलोक: नोशब्द इहापि सर्वनिषेध एव 'खेत्तलोए' त्ति क्षेत्र रूप लोक क्षेत्र लोक । आकाश ना प्रदेश ऊर्द्ध अधः अनै तिरछा लोक नै विषे अने ज्ञानी जिन सम्यक प्रकारे देखाड्यो ते क्षेत्र प्रते हे शिष्य ! तूं जाण । इति क्षेत्र लोक । 'काललोए' ति काल समयादि ते रूप लोक-काल लोक । समय, आवलिका, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पख, मास, संवत्सर, जुग, पल्य, सागर, उत्सर्पिणी, पुद्गल परावर्तन ए काल लोक। भाव लोए' त्ति भाव लोक बे प्रकार-आगम थकी अने नोआगम थकी। तिहां आगम थकी लोक शब्द नां अर्थ नों जाण ते लोक शब्द नां अर्थ नै विषे उपयोग सहित । भाव रूप लोक भाव लोक इति । अने नोआगम थकी भाव औदयिकादि, ते रूप लोक भाव लोक । इहां नों शब्द सर्व निषेध नै विषे अथवा मिश्र वचन । आगम ने ज्ञानपणां थकी क्षायिक क्षायोपशमिक ज्ञान स्वरूप भाव विशेष करिकै वली मिश्रपणां थकी औदयिकादि भाव लोक - इति । ०ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तश्च द्रव्यलोको द्रव्याण्येव धर्मास्तिकायादीनि, आह चजीवमजीवे रूविमरूवि सपएसअप्पएसे य। जाणाहि दब्बलोयं निच्चमणिच्चं च जं दव्यं ।। इहापि नोशब्द सर्वनिषेधे आगमशब्दवाच्यस्य ज्ञानस्य सर्वथा निषेधात् ० खेत्तलोए' त्ति क्षेत्ररूपो लोकः स च क्षेत्रलोक: आह चआगासस्स पएसा उड़दं च अहे य तिरियलोए य । जाणाहि खेत्तलोयं अणंतजिणदेसियं सम्मं ।। 'काललोए' त्ति काल: समयादिः तद्रूपो लोकः काललोक: आह चसमयावली मुहुत्ता दिवसअहोरत्तपक्खमासा य । संवच्छर जुगपलिया सागरउस्सप्पिपरियट्टा ।। 'भावलोए' त्ति भावलोको द्वेधा -आगमतो नोआगमतश्च तत्रागमतो लोकशब्दार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः भावरूपो लोको भावलोक इति नोआगमतस्तु भावाऔदयिकादयस्तद्रूपो लोको भावलोकः, इह नोशब्दः सर्वनिषेधे मिश्रवचनो वा आगमस्य ज्ञानत्वात् क्षायिकक्षायोपशमिक ज्ञानस्वरूपभाववि शेषेण च मित्रत्वादौदयिकादिभावलोकस्येति । (वृ० ५० ५२३) ४. खेत्तलोए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा --अहेलोयखेत्तलोए तिरियलोयखेत्तलोए, उड्ढ़लोयखेत्तलोए । (श० १११६१) ४. क्षेत्रलोक प्रभु ! किते प्रकारे ? जिन कहै तीन प्रकार । नीचो तिरछो मैं वलि ऊंचो, क्षेत्रलोक विहं धार ।। श०११, उ०१०, ढाल २३२ ४१५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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