Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 450
________________ ढाल : २३७ १. अथ पल्योपमादिक्षय तस्यैव सुदर्शनस्य चरितेन दर्शयन्निदमाह--- (वृ०प० ५४०) दूहा १. क्षय पल्योपम प्रमुख नों, उत्तर द्वार स्वाम । तेहिज सुदर्शण चरित्त करि, आखै छै अभिराम ।। _ *वीर सुदर्शन नैं कहै । (ध्रुपद) २. तिण काले में तिण समय, नगर हत्थिणापुर नीको जी काइ। सहस्रांब वन उद्यान थो, तस् वर्णन तहतीको जी कांइ।। ३ तिण हस्थिणापुर नगर में, बल नामे थो राजा जी कांइ । वर्णन कोणिक नी परै, राज्य लक्षण गुण ताजा जी कांइ॥ ४. तिण बल नामा राय ने, प्रभावती पटराणी जी काइ। कोमल कर पग जेहनां, यावत विचरै जाणी जी कांइ ।। ५. प्रभावती देवी तदा, अन्य दिवस किणवारे जी कांइ । तेहवै पुन्यवंत योग्य नैं, एहवै वास अगारे जी कांइ ।। २. तेण कालणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नाम नगरे होत्था-वण्णओ । सहसंबवणे उज्जाणे-वण्णओ। ३. तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले नामं राया होत्था वण्णओ। ४. तस्स णं बलस्स रण्णो पभावई नाम देवी होत्थासुकुमालपाणिपाया वण्णओ जाव'"विहरइ (श०१२१३२) ५. तए णं सा पभावई देवी अण्णया कयाइ तंसितारिसगंसि वासघरंसि 'तसि तारिसगंसि' त्ति तस्मिस्तादृशके-वक्तुम शक्यस्वरूपे पुण्यवतां योग्य इत्यर्थः । (वृ० ५० ५४०) ६.७ अभितरओ सचित्तकम्मे बाहिरओ दूमिय-घट्ठम8 'दूमियघट्ठमट्ठ' ति दूमितं-घवलितं घृष्टं कोमलपाषाणादिना अत एव मृष्टं—मसृणं यत्तत्तथा तस्मिन् (वृ० ५० ५४०) ८. विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले विचित्तउल्लोयचिल्लियतले' त्ति विचित्रो-विविधचित्रयुक्तः उल्लोकः उपरिभागो यत्र 'चिल्लियं' ति दीप्यमानं तलं च अधोभागो यत्र तत्तथा ((वृ० ५० ५४०) ९. मणिरयणपणासियधयार ६. नेह महल घर कहवा, भ्यतर चित्र सहीता जी काइ। बाहिर धवल्यो ऊजलो, पेखत पामै प्रीतो जी काइ॥ ७. कोमल पाषाणादिके, घृष्ट घस्योज घठारो जी काइ।। महरो फेर मदु कियो, मष्ट सचिक्कण मठारो जी काइ। ८. चित्र विचित्र चित्राम सू, भाग ऊपरलो आछो जी कांइ । देदीप्यमान सुदीपतो, अधोभाग तल जाचो जी काइ।। १०. बहुसमसुविभत्तदेसभाए है. चंद्रकांतादिक मणि करी, कतनादिक सारी जो काइ। तिण रत्ने करि महिल नों, न्हास गयो अंधकारी जी काइ ।। १०. घणो सरीखो भली परे, वहिच्यो कीधो सारो जी कांई। भूमिभाग मनहर अछ, अति रमणीक उदारो जी काइ। ११. सरस सुगंध पंच वर्ण ना, मूक्या पुष्प सुवदो जी कांइ । पूजा उपचारे करी, निरखत नयनानंदो जी कांइ ।। १२. कृष्णागर वर चीड नी, सेल्हक धूप नो गधो जी कांइ । मघमघंत अद्भूत छ, घ्राण मने सुखकंदो जी कांइ ।। ११. पचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए पुष्प-पुजलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलितं यत्तत्तथा (वृ० ५० ५४०) १२, कालागरु-पवर-कुंदुरुक्कतुरुक्क-धूव-मघमत गंधुद्धया भिरामे कुन्दुरुक्का-चीडा तुरुक्कं—सिल्हकं (वृ० ५० ५४०) १३. सुगंधवरगंधिए गंधवट्टिभूए 'सुगंधिवरगंधिए' त्ति सुगन्धयः सद्गन्धा वरगन्धा:वरवासाः सन्ति यत्र तत्तथा तत्र 'गंधवट्टिभूए' त्ति सौरभ्यातिशयाद्गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पे (वृ० ५० ५४०) १३. सुगंध वरध–वास छै, सौरभ नां अतिशय कर जी काइ। गुटिका जे गंध द्रव्य नी, तेह सरीख गंधागर जी कांइ ।। *लय : कुशल देश सुहामणो ४३४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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