Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 451
________________ १४. तंसि तारिसगंसि सर्याणज्जसि १४. एहवा महल विषे अछ, पुन्यवंत सूवा जोगो जी काइ। सेज्या महारलियामणी, सयन थकी आरोगो जी कांइ ।। १५. तेह पल्यंक विषे अछ, आलिंगन करी सहीतो जी कांइ । तनु प्रमाण तकिया अछ, बिहुँ पसवाड सुरीतो जी काइ । १६. मस्तक में बलि पग विषे, ओसीसा सुख सीरो जी काइ। बिहं पासे ऊंचो अछ, विचमें नम्यो गंभीरो जी कांइ ।। १७. किहांइक गंडबिब्बोयणे, पाठ इसो दीसंतो जी काइ । रूड़ी पर रचिया अछ, गाल मसूरिया तंतो जी काइ।। १८. गंगा तट नी बालुका, पग मेल्यां थी न्हाली जी कांई। पग नीचो जावै तदा, ए सम सेज सुंहाली जी कांइ ।। १५. सालिगणवट्टिए 'सालिंगणवट्टिए' त्ति सहालिगनवा -शरीर प्रमाणोपधानेन यत्तत्तथा (वृ० प०५४०) १६. उभओ विब्बोयणे दुहओ उण्णए मझेणयगंभीरे 'उभओ विब्बोयणे' उभयत:-शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य विब्बोयणे-उपधानके यत्र तत्तथा (वृ० ५० ५४०) १७. 'गंडविब्बोयणे' त्ति क्वचिद् दृश्यते तत्र च सुपरिक__ मितगण्डोपधाने इत्यर्थः। (वृ० ५० ५४०) १८. गंगापुलिणवालुय-उद्दालसालिसए गंगापुलिनवालुकाया योऽवदाल:-अवदलनपादादिन्या सेऽधोगमनमित्यर्थः तेन सदृशकमतिमृदुत्वाद्यत्तत्तथा (वृ० ५० ५४०) १६. ओयवियखोमियदुगुल्लपट्टपडिच्छयणे उवचिय' त्ति परिकर्मितं यत् क्षौमिकं दुकूलंकासिकमतसीमयं वा वस्त्रं यूगलापेक्षया य: पट्टःशाटकः स प्रतिच्छादनं-आच्छादनं यस्य तत्तथा (वृ० ५० ५४०) २७. सुविरइयरयत्ताणे सुष्ठु विरचितं-रचितं रजस्त्राण आच्छादनविशेषः (वृ० ५० ५४०) १६. रूड़ी परि निपजावियो', अतसी वस्त्र कपासो जी काइ । तेह युगल छै इकपटो, पट आच्छादन तासो जी कांइ ।। २०. रूड़ी परि रचियो अछ, रजस्त्राण सुरीतो जी काइ। आच्छादन नों विशेष ए, रज रक्षाय पुनीतो जी काइ । सोरठा २१. भोग अवस्था नांय, ते वेला वस्त्र करी। सेज्या ढांक ताय, आच्छादन कहिये तसु ।। २२. *षट छप्पर ढाक्यो अछ, राते वस्त्र परितो जी काइ । मशकगृह अभिधान ते, वस्त्र विशेषावरितो जी कांइ ।। २३. वस्त्र विशेषज चरम नों, तेह स्वभाव थी न्हाली जी काइ। अति कोमल होवै अछ, ते सम सेज संहाली जी कांइ ।। २१,२२. अपरिभोगावस्थायां यस्मिंस्तत्तथा (वृ०प०५४०) रत्तंसुयसंवुए रक्तांशुकसंवृते-मशकगृहाभिधानवस्त्रविशेषावृते (वृ० ५० ५४०) २३,२४. सुरम्म आइणग-रूय-बूर-नवणीय-तूलफासे आजिनक...-चर्ममयो वस्त्रविशेषः स च स्वभावादतिकोमलो भवति रूतं च-कप्पासपक्ष्म बुरं चबनस्पतिविशेष: नवनीतं च--म्रक्षणं तुलश्च-अर्कतूलः इति द्वन्द्वस्तत एषामिव स्पर्शो यस्य तत्तथा (वृ० प० ५४०) २५. सुगंधवरकुसुम-चुण्ण-सयणोवयारकलिए सुगन्धीनि यानि वरकुसुमानि चूर्णा एतद्व्यतिरिक्ततथाविधशयनोपचाराश्च तै: कलितं यत्तत्तथा। (वृ० ५० ५४०) २४. रू वलि बूर वनस्पति, माखण नैं अकत्लो जी काइ । सेज सूहाली एहवी, मनहर चित अनुकूलो जी कांइ ।। २५. प्रवर सुगंध प्रधान जे, पुष्प अनैं फुन चुणों जी कांइ। तिण करिने सय्या तणी, पूजा युक्त सुपर्णो जी कांइ ।। २६. महल सेज वर्णन तणी, बे सौ सैंतीसमी ढालो जी कांइ । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशालो जी काइ ।। १. अंगसुत्ताणि में ओयविय पाठ है । वृत्ति में उवचिय पाठ लिया गया है। जोड़ इसी पाठ के आधार पर की गई है। २०११, उ०१७ ढाल २३७ ४३५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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