Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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ताम नपति प्रभावती प्रति, पुष्प फल प्रतिपुन हथे।
बैसाणी ते जवनिका में, स्वप्न लक्षण पाठक प्रते ।। २८. परमोत्कृष्ट विनय करी. पाठक प्रति पूछतो जी।
इम निश्चै देवानुप्रिया ! प्रभावती मतिवंतो जी। मतिवंत देवी आज तेहवै, वास घर यावत भलो। सिंघ स्वप्नो देख जागी, तास फल स्यं गुणनिलो ? ढाल बेसौ चालीसमी, भिक्षु भारीमाल नप चंद री। सुख संपदा पामी 'सुजय-जश' परमोत्कृष्ट विनय करी ॥
२८. परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं क्यासी
एवं खलु देवा णुप्पिया ! पभावती देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा तणं देवाणुप्पिया ! एयस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ?
ढाल : २४१
दूहा १. स्वप्न लक्षण पाठक तदा. नप वच सुण निर्दोष ।
हृदय धार हरख्या घणां, पाया अति संतोष ।। २. अवग्रहै ते स्वप्न प्रति, ईहा करत विचार । अथ स्वप्न नों ग्रहण कर, आपस में संचार ।।
१. तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रण्णो अंतियं
एयमह्र सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्टा २.तं सुविणं ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता ईहं अणुप्पविसंति, __ अणुप्पविसित्ता तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेंति
अण्णमण्णेणं सद्धि संचालेंति ३. तस्स सुविणस्स लट्ठा गहियद्वा पुच्छियट्ठा 'लढ' त्ति स्वतः ‘गहियट्ठ' त्ति परस्मात् 'पुच्छ्यि ?'
त्ति संशये सति परस्परतः (वृ० ५० ५४२) ४. विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा
३. तेह स्वप्न नां अर्थ नैं, लाधा निज थी ताय ।
ग्रह्या अर्थ जे पर थकी, संसय थी पूछाय ।। ४. विशेष निश्चै कर किया, अर्थ स्वप्न नां आर ।
इतर जाण्या अर्थ नैं. स्थिर बुद्धि थी स्थाप ।। ५. बल राजा नै आगले, स्वप्न शास्त्र प्रति सोय ।
उच्चारण करतो थको, इम भाखै अवलोय ।। ६. *नरिंद मोरा, इम निश्चै करि स्वाम,
स्वप्न शास्त्र अम्हारा, स्वामी मोरा।
तेह विषेरे, म्हारा नाथ ॥ नरिंद मोरा, स्वप्न बयांलीस ताम.
फल सामान्यपणां थी रे, स्वामी मोरा।
इम अखै रे, म्हारा नाथ ॥ ७. नरिंद मोरा, मोटा स्वप्न सुतीस,
तास बड़ो फल पामै रे, स्वामी मोग।
ते भणी रे, म्हारा नाथ । नरिंद मोरा, सर्व मिली नैं जगीस,
स्वप्न बोहित्तर नामैं रे, स्वामी मोरा।
कहै गुणी रे, म्हारा नाथ ।।
५. बलस्स रण्णो पुरओ सुविणसत्थाई उच्चारेमाणा
उच्चारेमाणा एवं वयासी६. एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सुविणसत्थंसि
बायालीसं सुविणा 'सुविण' त्ति सामान्यफलत्वात् (वृ० ५० ५४३)
७. तीसं महासुविणा-बावत्तरि सव्वसुविणा दिट्ठा। 'महासुविण' त्ति महाफलत्वात् 'बावत्तरि' ति त्रिंशतो द्विचत्वारिंशतश्च मीलनादिति (वृ० प० ५४३)
*लय: मुणींद मोरा
४४४ भगवती-जोड़
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