Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 430
________________ ६४. सर्वार्थसिद्ध ऊपरे, शिखर अग्र थी जाणी हो । बार योजन ऊंची अछ, सिद्धशिला पहिछाणी हो । ६५. लाख पैताली योजन, लांबी चौड़ी कहिय हो। ऊपर इक योजन तिहां, लोकांतज लहिये हो। ६६. ते योजन नों ऊर्ध्व जे, गाऊ एक कहै छै हो। तेहना छठा भाग में, सह सिद्ध रहै छै हो । ६७. हम पर्व जे आखिया, संघयणादिक द्वारं हो । सिद्धिगंडिया अनुक्रमे, सिद्ध तणो अधिकार हो । ६४. किन्तु सर्वार्थसिद्धमहाविमानस्योपरितनास्तूपिकाग्रा दुध्वं द्वादश योजनानि व्यतिक्रम्येषत्वाग्भारा नाम पृथिवी। (वृ० ५० ५२१) ६५. पंचचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणाऽऽयामविष्कम्भाभ्यां ....... योजने लोकान्तो भवति (वृ० प० ५२१) ६६. तस्य च योजनस्योपरितनगव्यूतोपरितनषड्भागे सिद्धाः परिवसन्तीति (वृ० ५० ५२१) ६७. एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणियव्वा एवमिति-पूर्वोक्तसंहननादिद्वारनिरूपणक्रमेण सिद्धिगण्डिका' सिद्धिस्वरूपप्रतिपादनपरा। (वृ०प० ५२१) ६८. इयं च परिवसन द्वारं यावदर्थलेशतो दर्शिता, तत्परतस्त्वेवं 'कहिं पडिहया सिद्धा...... इत्यादिका....... (वृ० ५० ५२१) ६६. जाव- अव्वाबाहं सोक्खं अणुहोति सासयं सिद्धा। (श० १११८८) ७०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ११८६) ६८. सिद्ध बस त्यां लग इहां, कह्यो लेश थी सागै हो। पडिहया सिद्धा कहि, इत्यादिक आग हो । ६६. जावत बाधा रहित ते, सिद्धा सुख अनुभव हो। सेवं भंते ! इह विधे, गोतमजी कहवै हो । ७०. बेसौ नैं इकतीसमी, आखी ढाल अमंदा हो। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' सुख आनंदा हो॥ एकादशशते नवमोद्देशकार्थः ॥११॥६॥ ढाल : २३२ १. नवमोद्देशकस्यान्ते लोकान्ते सिद्धपरिवसनोक्तेत्यतो लोकस्वरूपमेव दशमे प्राह- (वृ० ५० ५२१) २. रायगिहे जाव एवं वयासी दूहा १. नवम उद्देशक अंत में, लोकांते सिद्धवास । ते माट दशमें हिवे, लोक स्वरूप अभ्यास ।। २. नगर राजगृह नैं विष, यावत गोतम स्वाम। वीर प्रत वंदी करी, इम बोले शिर नाम ॥ _*हिये धर रे, श्री प्रभुजी नां वचन अंगीकर रे । (ध्रुपदं) ३. कतिविध लोक कह्यो भगवंते ! जिन कहै च्यार प्रकार । द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव ए, वलि शिष्य पूछ सार ।। वा०-'दव्वओ लोए'त्ति द्रव्य थकी लोक बे प्रकारे-आगम थकी अने नोआगम थकी । तिहां आगम थकी द्रव्य लोक ते लोक शब्द नां अर्थ नों जाण, ते लोक शब्द नां अर्थ नै विषे उपयोग रहित हुवै इत्यर्थः । अनुपयोगो द्रव्यं इति वचनात् । उपयोग-रहित द्रव्य, एहवं कह्य छ। ते वचन थकी लोक शब्द नां अर्थ नो जाण छ, पिण तेहनै विषे उपयोग नहीं, ते माट तेहन द्रव्य लोक ३. कतिविहे णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! चउन्विहे लोए पण्णत्ते, तं जहा—दव्वलोए खेत्तलोए काललोए भावलोए। (श०११।१०) वा०—'दव्वलोए' ति द्रव्यलोक आगमतो नोआगमतश्च तत्रागमतो द्रव्यलोको लोकशब्दार्थज्ञरतत्रानुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य' मिति वचनात् *लय : तू चामड़ा री पुतली ! भजन कर हे ४१४ भगवती-जोड Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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