Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 393
________________ "सोरठा २८६. पूरव दिश रै माय, भद्रासण शोभै भला। सहस चउरासी ताय, इम दक्षिण पश्चिम उत्तर॥ २८७. आत्मरक्षक अभिराम, ते भद्रासण मैं विषे। चिहूं दिश माहे ताम, बैठा शोभ रहा तदा ।। २८६. पुरथिमिल्लेणं...... साहस्सीओ, दाहिणेण ...... साहस्सीओ, पच्चत्यिमेणं साहस्सीओ, उत्तरेणं ....... साहस्सीओ, (राय० सू० ६६४) २८७. ते णं आयरक्खा सण्णद्ध-बद्ध-बम्मिय-कवया (राय० सू० ६६४) २८६. उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्ध-गेविज्जा (राय० सू० ६६४) उत्पीडितशरासनपट्टिकाः पिनद्धवेया:-पिनद्ध प्रैवेयकाभरणाः (राय० वृ० प० २७०) २६०. आविद्ध-विमल-वरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणा (राय० सू० ६६४) २८८. *ते सर आतमरक्ष, सन्नद्ध बद्ध कवच भला । बगतर पहिरचा सार, झलकता अधिक झिला ॥ अधिक झिला जी, दीस उजला, अंगरक्षक काज अमर अमला। ओ तो जशधारी सुरनाथ, तास वस है कमला ।। २८९. बांध्या गाढ़ा करी, शरासण तीर तणां । तरकश पट्टिका तेण, तिहां शर अतिहि घणां । अतिहि घणां जी, सुरवर सुमणां, पहिरया फुन ग्रीवा आभरणां । ए तो आतमरक्षक देव, शक्र किंकर नमणां ।। २६०. आरोप्या शिर विषे, विमल चिह्न-पट्ट वारू । छोगा विशेष एह, चमकता अति चारू । अति चारू जी, सुरहित कारू आयुध प्रहरण ग्रह्या सारू । ए तो आतमरक्षक देव, अधिप आज्ञाकारू ॥ २६१. आदि मध्य अवसान, विषे सूरवर नमता। एहिज तीन स्थान, संधि छै अति जमता। अति जमता जी, मन में गमता, देवाधिप नां अरि नै दमता। ए तो आतम रक्षक देव, शक्र आणा रमता ।। २६२. वज्र रत्न रै माय, कोटि ते अग्र अणी । एहवा धनुष उदार, ग्रही तसुं शक्ति घणी । शक्ति घणी जी, सूत्रे पभणी, शर-वृंद तिहां सम्पूर्ण थुणी। ए तो आतम रक्षक देव, सेव सहस्राक्ष तणी॥ २६३. केयक सुर नैं हाथ, नील वर्णेज ग्रह्या। शर नां वृंद कलाप, नील-पाणीज कह्या । पाणीज कह्या जी, अतिही उमझा, इम पीत रक्त पाणीज लह्या। ए तो आतम रक्षक देव, सुराधिप आण रह्या ।। २६४. धनुष हाथ छै जास, चाप-पाणी कहिये । चारू-पाणी केय, चारु प्रहरण लहिये। प्र. रण लहिये जी, अति हर्ष हिय, के चर्मपाणीज चर्म गहिये। ए तो आतम रक्षक देव, अधिप आणा रहिये। सोरठा २९५. अंगुष्ठ अंगुली सोय, तसु आच्छादन चर्म ते। जेह तणे कर जोय, चर्म-पाणी कहिये तस॥ २६१. ति-णयाणि ति-संधीणि (राय० सू० ६६४) त्रिनतानि आदिमध्यावसानेषु नमनभावात् त्रिसन्धीनि आदिमध्यावसानेषु संधिभावात् (राय० वृ० प० २७०) २९२. वयरामयकोडीणि धणूई पगिज्झ परियाइयकंडकलावा (राय० सू० ६६४) २६३. णीलपाणिणो पीतपाणिणो रत्तपाणिणो (राय० सू० ६६४) २६४. चावपाणिणो चारुपाणिणो चम्मपाणिणो (राय० सू० ६६४) चारु:-प्रहरणविशेष: पाणी येषां ते चारुपाणयः (राय० वृ० प० २७०) २९५. चर्म अंगुष्ठांगुल्योराच्छादनरूपं येषां ते चर्मपाणयः (राय० वृ० प० २७०) * लयः म्है तो जास्यां जास्यां वंदन वीर श० १० उ०६, ढा० २२४ ३७७ Jain Education Intemational a For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490