Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 413
________________ ५. हे भदंत ! सालु इक पत्र, एक जीव के अनेक तत्र ? जिन कहै एक जीव छ एम, कहिये उत्पल उद्देश जेम ।। ५. सालुए णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे ? अणेगजीवे ? गोयमा ! एगजीवे । एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा। ६. जाव अणंतखुत्तो, नवरं-सरीरोगाणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणपुहत्तं, ७. सेसं तं चेव । (श० ११।४२) सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १११४३) ६. जाव अनंतखुत्तो पहिछाण, णवरं विशेष तनु अवगाण । जघन्य अंगुल लैं भाग असंख, उत्कृष्ट धनुप पृथक नो अंक ।। ७. शेषं तिमहिज सेवं भंत ! सेवं भंत ! गोयम वच तंत । एकादशम शतक गुणगेह, द्वितीय उद्देश अर्थ वर एह ।। एकादशशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥१२॥ ८. हे भदंत ! इक पत्र पलास, एक जीव के अनेक तास ? एवं उत्पल उद्देश जेम, वक्तव्यता कहियै सहु तेम ।। ६. णवरं तनु अवगाहन माग, जघन्य आंगुल नों असंख भाग। उत्कृष्ट पृथक गाउ कहिवाय, पलास में सुर उपजै नाय ।। १०. पलाश में प्रभु ! केती लेश? जिन कहै धुर त्रिहं लेश कहेस । भंग छब्बीस शेष तिम हुँत, सेवं भंते ! सेवं भंत ! एकादशशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥११॥३॥ ८. पलासे णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे ? अणेगजीवे ? ___ एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा, ६. नवरं-सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ___ भाग, उक्कोसेणं गाउयपुहत्ता । देवेहितो न उववज्जति । (श० १११४४) १०. लेसासु-ते णं भंते ! जीवा कि कण्हलेस्सा? नीललेस्सा? काउलेस्सा ? गोयमा ! कण्हलेस्से वा, नीललेस्से वा, काउलेस्से वा -छब्बीस भंगा, सेसं तं चेव। (श० ११६४५) सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति (श० १११४६) ११. कुंभिए ण भते ! एगपत्तए कि एगजीवे ? अणेगजीवे ? एवं जहा पलासुद्देसए तहा भाणियन्वे, नवरं१२. ठिती जहणणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वासपुहत्तं, सेसं तं चेव । (श० १११४७) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १११४८) ११ वनस्पति प्रभु ! कुंभी विशेख, एक पत्र जीव इक के अनेक ? कह्यो पलास उद्देशक जेह, तिम कहिवू पिण णवरं एह ।। १२. स्थिति अन्तर्मुहर्त जघन्य, उत्कृष्ट पृथक वर्षज मन्य। शेष तिमज प्रभु ! सेवं भंत ! तुर्य उद्देशक एह कहंत ॥ एकादशशते चतुर्थोद्देशकार्थः ॥१॥४॥ १३. वनस्पति प्रभु ! नालिका देख, एक पत्र जीव इक के अनेक ? कुंभी उद्देश विषेज वृतंत, तिम सहु कहिवू सेवं भंत ! एकादशशते पंचमोद्देशकार्थः ॥११॥५॥ १४. पद्म तिको प्रभु ! कमल विशेख, एक पत्र जीव इक के अनेक ? उत्पल प्रथम उद्देश वृतंत, तिम सहु कहिवू सेवं भंत ! एकादशशते षष्ठोद्देशकार्थः॥१॥६॥ १५. कणिका जाति कमल नी पेख, एक पत्र जीव इक के अनेक ? उत्पल प्रथम उद्देश वृतंत, तिम सह कहि सेवं भंत ! एकादशशते सप्तमोद्देशकार्थः ॥११॥७॥ १६. नलिण-कमल नी जाति विशेख, एक पत्र जीव इक के अनेक ? उत्पल प्रथम उद्देश वतंत, तिम सह कहि सेवं भंत ! एकादशशते अष्टमोद्देशकार्थः ।।११।८।। १३. नालिए णं भंते ! एगपत्तए कि एकजीवे ? अणेगजीवे ? एवं कुंभिउद्देसगवत्तव्वया निरवसेसं भाणियब्वा । (श० १११४६) सेवं भते ! सेवं भंते त्ति। (श० ११२५०) १४. पउमेणं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे ? अणेगजीवे? एवं उप्पलुद्देसगवत्तब्वया निरवसेसा भाणियब्वा । (श० १११५१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १११५२) १५. कण्णिए णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे ? अणेगजीवे ? एवं चेव निरवसेसं भाणियव्वं । (श०१११५३) सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति । (श० १११५४) १६. नलिणे णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे ?अणेगजीवे? एवं चेव निरवसेसं जाव अणंतखुत्तो। (श० १११५५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १११५६) श०११, उ०२, ढाल २२६ ३९७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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