Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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१७. सालु उत्पल कंद ते, आदि देइनें सात ।
बहुलपणे उत्पल तणां, उद्देशक सम ज्ञात ॥ १८. वलि विशेष जे जिण विषे, आख्या आगम मांहि ।
णवरं पलास नै विष, देव ऊपजै नांहि ।।
१६. उत्पल उद्देशक विषे, सूर उत्पल उपजत ।
इहां पलासे देवता, नहिं उपजै ए मंत।। २०. उत्पल प्रमुख वनस्पति, प्रशस्त में सुर आय ।
पलास अप्रशस्त ते भणी, देव ऊपजै नांय ।। २१. उत्पल सुर उत्पत्ति भणी, तेजलेश्या पाय ।
पलास सुर नहि ऊपजै, तेजूलेश्या नाय ।।
१७. शालूकोद्देशकादयः सप्तोदेशकाः प्राय: उत्पलोद्देशकसमानगमाः ।
(वृ० ५० ५१४) १८. विशेष: पुनर्यो यत्र स तत्र सूत्रसिद्ध एव, नवरं पलाशोद्देशके यदुक्तं 'देवेसु न उववज्जति' त्ति ।
(वृ० ५० ५१४) १६,२०. उत्पलोद्देशके हि देवेभ्य उद्वत्ता उत्पले उत्पद्यन्त
इत्युक्तमिह तु पलाशे नोत्पद्यन्त इति वाच्यम्, अप्रशस्तत्वात्तस्य, यतस्ते प्रशस्तेष्वेवोत्पलादिवनस्पतिषूत्पद्यन्त इति ।
(वृ० ५० ५१४) २१. यदा किल तेजोलेश्यायुतो देवो देवभवादुवृत्त्य
वनस्पति)त्पद्यते तदा तेषु तेजोलेश्या लभ्यते, न च पलाशे देवत्वोवृत्त उत्पद्यते पूर्वोक्तयुक्तेः, एवं चेह
तेजोलेश्या न संभवति । (वृ०प० ५१४) २२. तदभावादाद्या एव तिस्रो लेश्या इह भवन्ति, एतासु
च पविशतिभंगकाः, त्रयाणां पदानामेतावतामेव भावादिति ।
(वृ० प० ५१४)
२२. तेज तणां अभाव थी. पलास में त्रिहं लेश ।
पद त्रिहुं नां षटवीस भंग, संभव तास विशेष ।। २३ *ग्यारमा शत नों अष्टम न्हाल, दोयसौ नैं छवीसमी ढाल। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसाय,
'जय-जश' संपति हरष सवाय ।।
ढाल : २२७
दूहा १. कह्या अर्थ उत्पल प्रमुख, एहवा अर्थ प्रतेह ।
यथातथ्य जे जाणवा, समर्थ सर्वज्ञ जेह ।। २. पिण अन्य समर्थ छै नहीं, द्वोर समुद्र प्रतेह ।
शिव ऋषिराज तणी परै, हिव कहियै छ जेह ।। ३. तिण काले नैं तिण समय, हत्थिणापुर वर नाम ।
नगर हुँतो रलियामणो, वर्णक अति अभिराम ।। ४. तिण हत्थिणापुर नगर रै, बाहिर कृण ईशान ।
सहस्रब वन नाम जे, हुतो वर उद्यान ॥ ५ ते वन सब ऋतु में विषे, फल फलै समृद्ध ।
नंदन वन सम अति सुखद, मन रमणीक सुऋद्ध ।। ६. सुखदायक शीतल घणी, छाया तरु नी इष्ट ।
मन रमणीक इसा अछ, स्वादू फल अति मिष्ट ।। ७. केटाला तर करि रहित, पासादिए पिछान ।
जावं तिको प्रतिरूप छ, एहवो वर उद्यान ।
१,२. अनन्तरमुत्पलादयोऽर्था निरूपिताः, एवं भूतांश्चा
र्थान् सर्वज्ञ एव यथावज्ज्ञातुं समर्थो न पुनरन्यो, द्वीपसमुद्रानिव शिवराजषिः, इति सम्बन्धेन शिवराजर्षि
संविधानकं नवमोद्देशकं प्राह - (वृ० ५० ५१४) ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे
होत्था—वण्णओ। ४. तस्स णं हत्थिणापुरस्स नगरस्स वहिया उत्तरपुरस्थिमे
दिसीभागे, एत्थ णं सहसंबवणे नाम उज्जाणं होत्था५. सव्वोउय-पुप्फ-फलसमिद्धे रम्मे णंदणवणसन्निभप्प
गासे ६. सुहसीतलच्छाए मणोरमे सादुप्फले
७. अकंटए पासादीए जाव (सं० पा०) पडिरूवे ।
(श० १११५७)
*लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी
३६८ भगवती-जोड़
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