Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 416
________________ शिवराज २२. जेम तामली चितव्यं जी, तिम चित जाव पुत्रे करि हूं बयो, पशु करि बाच्यो समाज ॥ २३. राज करि वाध्यो वली जी रथ करके पिण एम। बल कटके करि बाधियो जी वाहन करके तेम || २४. कोष भंडार करी वध्यो जी, कोद्रागार करेह | 1 २८. पुर अंतेउर करि बस्ती जी हूं वाध्यो अधिके ।। २५. विस्तीर्ण धन कनके करीजी, रत्न करीनें जाव । छता सार द्रव्ये करी जी, घणुं घणुं बाध्यो साव ॥! २६. ते भी स्यूं पूर्व भने जी तप दानादिक कीच जाव एकंत ते पुन्य में क्षय करतो विच प्रसीप २७. ते माटै हूं ज्यां लगे जी, प्रथम वाध्यो हिरण्येण । तं चैव जाव पर्ण-वणं जी, वाघ्यो सार द्रव्येण ॥ सामंत राजवी जी मुझ वश व विशेष । त्यां लग मुझनें श्रेय भलो जी, काल प्रभात संपेख ॥। २६. पवर प्रभा प्रगट्ये छते जी, जाव जलते जान । जाज्वलमान सूरज जिको जी, उदय थयो असमान ॥ ३०. अति बहु लोही लोह नां जी, कडाहा कुडछी जेह । रोटी पचावा नां वली जी, अन्न हलावा नां एह ॥ ३१. ते पिण योग्य तापस तणें जी, भंड घड़ावी तेह ॥ शिवभद्र नामै कुमार ने जी स्थापी राज्य प्रवेह ॥ ३२. ते अति बहु लोही लोह नां जो कडाहा कुडी जोग 3 ते पिण योग्य तापस तणें जी, भंड ग्रही ने सोय ॥ १३. जे ए गंगा तट ने विषे जी, वानप्रस्थ विख्यात ।। तापस छै तप में रता जी, होत्तियादिक आख्यात || सोरठा ३४. वन में विषे वसंत अथवा तीजो मंत, ३५. ब्रह्मचारी नैं गृहस्थ, तीजो ए वानप्रस्थ, वानप्रस्थ कहिये तसु। च्यारूं आश्रम नैं विषे ॥ वानप्रस्थ चउथो जती। होत्तियादि गंगा तटे ॥ गीतक-छंद ३६. नित्य अग्निहोमज जे करै, ते कह्या तापस होत्तिया । फुन वस्त्र नां धारक जिके छ, तेह तापस पोत्तिया ॥ ३७. फुन क्वचित पाठज सोत्तिया, ते सूत्र धार लहीजिये । भगवती पाठ विये कला तिणहीज रीत कहीजिये ॥ वा० इहां भगवती नी वृत्ति विषे इम कहा - होलिया पोतिया... सोत्तियत्ति क्वचित् पाठः । जहा उववाइए (सू.२४ ) इति इण अतिदेश थकी इम जाणवो — कोत्तिया जन्नई सड्ढइ हुंबउट्ठा दंतुक्खलिया उम्मज्जगा समज्जगा निमज्जगा इत्यादि उबवाई में पाठ कह्या, ते जाणवा ।' १. भगवती सूत्र के कुछ आदर्शों में विस्तृत पाठ देने के बाद औपपातिक सूत्र का समर्पण किया गया है । संक्षिप्त और विस्तृत दो वाचनाओं के मिश्रण से ऐसा होना संभव प्रतीत होता है । 'ब' संकेतित आदर्श में केवल एक विस्तृत वाचना ४०० भयवती जोड़ Jain Education International २२. जहा तामलिस्स जाव (सं० पा० ) पुत्तेहि वड्ढाम पसूहि वड्ढाम २३. रज्जेणं वड्ढामि एवं रट्ठेणं बलेणं वाहणेणं २४. कोसेणं कोट्ठागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं वड्ढामि २५. विपुलधण - कणग - रयण जाव (सं० पा० ) संतसारसावणं अतीय-अतीव अभिवामि २६. कि अहं पुरा पोरागाणं सुचिष्वार्थ सुपरवर्कताणं एतसो वयं उमा बिरामि ? २७. तं जावताव अहं हिरण्णेणं वड्ढामि जाव अतीवअतीव अभिवामि। २८. जाव मे सामंतरायाणो वि वसे वट्टंति तावता मे सेयं कल्लं २१. पाउप्पभावाए रमणीए जाव उद्वियम्मि मूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते ३०, ३१. सुबहु लोही-लोहकडाह - कडच्छुयं तंबियं ताव सभंडगं घडावेत्ता सिवभद्दं कुमारं रज्जे ठावेत्ता ३२. तं सुबहु लोही - लोहकडाह कडच्छ्रयं तंबियं ताव सभंडगं गहाय ३३. जे इमे गंगाकुले वाणपत्या तावसा भवंति तं जहाहोत्तिया ३४. 'वाणपत्थ' त्ति वने भवाः ३५. 'ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा' एतेषां च तृतीयाश्रमवत्तनो वानप्रस्थाः । For Private & Personal Use Only ( वृ० प० ५१६ ) ३६. 'होत्तिय' त्ति अग्निहोत्रिका: 'पोत्तिय' ति वस्त्रधारिण: २७. सोतिय' ति वा० दृश्यं - 'जहा उचबाइए' ( वृ० प० ५१९) नवचित्पाठस्तत्राप्ययमेवार्थः । ( वृ० प० ५१६) इत्येतस्मादतिदेशादिदं (१० १० ५१९) www.jainelibrary.org

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