Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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५०. अंबुभक्खिणो वाउभक्खिणो
५१. सेवालभक्खिणो मूलाहारा
५०. जलहीज पीवी नैं रहै, ते अंबुभक्षी जाणवा।
फून पवनहीज भर्ख जु तापस, पवनभक्षी माणवा ।। ५१. फुन भखै जे सेवाल प्रति, सेवालभक्षी आखिये।
तरु मूल नों हिज आर करिव, मुलाऽऽहारा दाखियै ।। ५२. फुन कंदाऽऽहारा पत्राऽऽहारा, त्वचाऽऽहारा जाणिय ।
वलि पुष्पाऽऽहारा फलाहारा, बीजाऽऽहारा आणियै ।। ५३. अतिही सड्या जे कंद मूलज, त्वचा पत्रज आहारिय।
फल फल जे पंडर थया, तेहनोज आर विचारियै ।। ५४. फुन दंड ऊंचो करी हीडै, वह्या तास उदंडगा।
तरुमलिया तरु-मूल बसिवै, कह्या ए पाखंडगा ।।
५२. कंदाहारा पत्ताहारा तयाहारा पुप्फाहारा फलाहारा
बीयाहारा ५३. परिसडिय-पंडु-पत्तपुप्फफलाहारा
५४. उदंडा रुक्खमूलिया 'उदंडग' त्ति ऊर्ध्वकृतदण्डा ये संचरन्ति
(वृ० ५० ५१९) ५५. मंडलिया विलवासिणो
वा०-'वक्कलवासिणो' त्ति वल्कलवाससः (वृ०प०५१६)
५५. मंडलाकारे एकठा रहै, तास मंडलिया कह्या ।
बिल रूप बिल नै विषे जेहन, वास विलवासी लह्या ।।
वा०-वृक्ष नी छालि रूप वस्त्र धरै ते 'वक्कवासिणो' ए पाठ किणहि परत में छ, किणहि परत में नहीं। ५६. दिशि जले छांटी लै फलादिक, दिशापोखी छ जिके।
आतापना पंचाग्नि तापे करीने तापस तिके ।।
५७. कोयला सदृश पच्यो तनु, फुन कंदुभाजन जिम पच्यु ।
फुन जल्या काष्ठ सरीख तन, तसु श्याम वर्णे कर रच्यं ।।
५८. इम आत्म प्रति करता थका, विचरैज तापस ए कह्या ।
शिवराज ने मझ रात्रि समये, अध्यवसाय इसा थया ।। ५६. *तिहां दिशापोखी तापस जेह छै जी, तसु पासे मुंड होय ।
दिशापोखी तापसपणजी, लेसूं प्रव्रज्या सोय ॥ ६०. प्रव्रज्या लीधे छते जी, एहवू अभिग्रह सार।
आदरवं श्रेय मो भणी जी, कहिये ते अधिकार ॥ ६१. कल्पै मुझ जीव ज्यां लगै जी, छठ-छठ अंतर रहीत । दिशाचक्रवाले करी जी, तप करिवै विधि रीत ।।
सोरठा ६२. धुर छठ पारण पेख, पूर्व विषे जल छांटतो।
फलादि ग्रही विशेख, आ'र करै इह रोत सं॥ ६३. इम बीजे दिन जाण, दक्षिण दिशि छांटी उदक ।
इम फिरती दिशि माण, कही दिशा-चक्रवाल ते ।।
५६. दिसापोक्खिया आतावणेहि पंचग्गितावेहि
'दिसापोक्खिणो' त्ति उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फल
पुष्पादि समुचिन्वन्ति। (वृ० प० ५१६) ५७. इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लियं कटुसोल्लियं
'इंगालसोल्लिय' ति अंगारैरिव पक्वं 'कंदुसोल्लिय' ति कंदुपक्वमिवेति ।
(वृ० प० ५१६) ५८ पिव अप्पाणं करेमाणा विहरति ।
(अं० सु० पृ० ४६४ पा० टि० १२) ५६. तत्थ णं जे ते दिसापोक्खो तावसा तेसि अंतियं मुंडे
भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पब्वइत्तए ६०. पव्वइत्ते वि य णं समाणे अयमेयारूबं अभिग्गह
अभिगिहिस्सामि६१. कप्पइ मे जावज्जीवाए छठेंठेणं अणिक्खित्तेणं
दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं
६२,६३. दिसाचक्कवालएणं 'तवोकम्मेणं' ति एकत्र पारणके
पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहृत्य भुक्ते द्वितीये तु दक्षिणस्यामित्येवं दिकचक्रवालेन यत्र तपःकर्मणि पारणककरणं तत्तपःकर्म दिक्चक्रवाल
मुच्यते तेन तपःकर्मणेति । (वृ० प० ५१६,५२०) ६४. उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय जाव (सं०पा०)
विहरित्तए, त्ति कटु एवं संपेहेइ ।
६४. *ऊंची बे बाह करी जी, जाव विचरवं श्रेय ।
इम निशि करि विचारणा जी, शिवराजा चित देय ।। ६५. शत ग्यारम देश नवम नं जी, ढाल बेसौ सतावीस ।
भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी, 'जय-जश' हरष जगीस ।।
*लय : अभड़ भड़ रावणा १. उववाई में 'दिसापोक्खी' के स्थान पर 'दिसापोक्खिणो' पाठ है।
४०२ भगवती-जोड़
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