Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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२६३. चरिका ते अष्ट हस्त प्रमाण, गढ नगर विषे मग जाण । वली महल तणां जे द्वार, गोपुर गढ नीं पोल उदार ॥
२६४. तोरण द्वार संबंधी जान, माधवी लतादि गृह स्थान । जिहां आवी पुरुष स्त्री ताम, रमै कहियै तास आराम ||
२६५. उत्सवादिक विषे आरोग्य, वारू उद्यान ते सुखकंद, २६६. वेग तिको वन कहिवाय, एक जाति तणां सुखदाय ।
बहु जन नैं भोगविवा जोग्य | ढुकडं ते कानन तरु वृन्द ॥
उत्तम वृक्ष समूह सुचारु,
वनराई कहिये
वारू' ।।
२६७. एक अनेक जात नां उदार,
तर समूह वनखंड विचार । ए सहु नीं अचर्चा करि ताय, शीघ्र आज्ञा सूंपो आय ।।
२६८. आभियोगिया देवा तिवार, इंद्र वचन कियो अंगीकार । सहु नी अर्चा कर स्वयमेव, पाछी आज्ञा सूपी ततखेव ॥
२६६ शक्र इन्द्र हि सुखदाय, जिहां नंदा पुष्करणी त्यां आय । नंदा पोक्खरणी नैं सुचंग, प्रदक्षिणा करतो उमंग ।। २०० पूर्व ने पावड़िये कर ताहि, पेठो नंदा पोखरणी मांहि । हस्त पाय पखाली सार, आयो नंदा-पोक्खरणी बार ॥
२७१. जिहां सभा सुधर्मा उदार, तिहां गमन भणी सुविचार |
प्रवर्त्यो सुराधिप इंद, साथै देव देव्यां रा वृंद ॥ २०२. सामानिक चउरासी हजार जान तीन लाख अवधार । ऊपर सहंस छत्तीस संगीत, आत्मरक्षक देव सहीत ॥ २७३. वलि अन्य बहु सुधर्मवासी, वैमानिक देव देवी हुलासी । परवरधो इन्द्र तेह संघात सर्व ऋद्धि करि सुविख्यात । २७४ जाय वार्जित्र नां भिणकार, सुर दुंदुभि घोष उदार । जिहां सभा सुधर्मा सुचंग, तिहां आयो घर उचरंग ॥ २७५. हि सभा सुधर्मा तेह, विषे प्रवेश करं जिहां सिंहासन तिहां आय, बैठो पूर्व मुख
।
गुणगेह | सुरराय ॥
१. रायपसेणइयं में उज्जाणेसु के बाद पाठ का क्रम इस प्रकार है-वणेसु व राईसु काणणेसु ..... जोड़ में उद्यान के बाद कानन की व्याख्या है । उसके बाद वन और वनराजि की । वृत्ति में उद्यान के बाद कानन हैं। उसके बाद वन, वनखण्ड और वनराजि है ।
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२६३. चरियासु दारेसु गोपुरेसु (राप० ० ६५४ ) चरिका अष्टहस्तप्रमाणो नगरप्राकारान्त राजमार्गः द्वाराणि प्रासादादीनां गोपुराणि प्राकारद्वाराणि (राय० २०१० २६० ) २६४. तोरणेसु आरामेसु (राय० सू० ६५४ ) तोरणानि द्वारादिसम्बंधीनि आरमले पत्रलतागृहादिषु दम्पत्यादीनि इत्यसावारांमः (राय० वृ० प० २६८ ) २६५, २६६. उज्जाणेसु वणेसु वणराईसु काणणेसु
( राय० सू० ६५४ ) पुष्पादिमय वृक्षसं कुलमुत्सवादी बहुजनोपभोग्यमुद्यानं, एकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो वनराजी ।
(राय० वृ० प० २६७ ) २६७. वणसंडेसु अच्चणियं करेह करेत्ता एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चष्पिणह । (राय० ० ६५४ ) एका नेकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो वनखण्ड:
(राय० वृ० प० २६८ ) २६८. तए णं ते अभिओगिया देवा एवं वृत्ता समाणात माणत्तियं पच्चप्पिणंति । (राय० सू० ६५५ ) २६६. तए णं से'''''जेणेव गंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता (राय० सू० ६५६) २७०. नंदं पुक्खरिणि पुरथिमिल्लेणं तिसोमाणपडिरूवएवं पच्चोरुहति पच्चोरुहित्ता हत्यपाए पक्खालेइ, पक्खालेत्ता गंदाओ पुक्खरिणीओ पच्चत्तरेइ,
(राय० सू० ६५६ )
२७१. जेणेव .......तेणेव पहारेत्थ गमणाए ।
( राय० सू० ६५६ ) २७२. तए णं से......'आयरक्खदेव साहस्सीहि
( राय० सू० ६५७ ) २०३. अहि यहि विमागवासीहि बेमाणिएहि देवेह य देवीहि य सद्धि संपरिवुडे सव्विड्ढीए ( राय० सू० ६५७ ) २७४. जाव (सं० पा० ) नाइयरवेणं जेणेव तेणेव
उवागच्छइ
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२७५. ............पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सीहासमवरमए पुरस्याभिगृहे सणसणे । ( राय० सू० ६५७ )
श० १० उ० ६ ढा० २२४ ३७५
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