Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
वाचना भेद दीस छ । अनें वृत्तिकार सुधर्मा सभा में त्रिहुं दिशे द्वार मुख मंडपादिक नी पूजा कही अने उपपात सभा ने विष पिण मणिपीठिका, देव सेज्या ने बहु मध्य देश भाग नी पूजा इत्यादिक वारता कही ते किणही वाचना में देखी दीसै छ। तिण अनुसारे कही जणाय छ। ते बात मिलती संभवै । वली शके पूजा करी बलिपीठिका ने विषे बलि विसर्जन कियो, घणी परतां में तो एहवं कह्य अनै वृत्तिकार आभियोगिक देवता सुधर्मावतंसक विमान नी पूजा करी तठा पछ बलि पीठिका नै विषे बलि विसर्जन कियो कह्यो, ए पिण वाचना भेद हुवै तो ते पिण केवली जाण ।' [ज० स०]
३०१. *एहवो शक तणो परिवार, तिणरा पुन्य तणो नहि पार ।
स्थित दोय सागर नी हुंत, वलि गोयम प्रश्न करत ।।
प्रक्षाल्य नन्दापुष्करिण्याः प्रत्यवतीर्य सामानिकादिपरिवारसहितः सर्वर्द्धचा यावद् दुन्दुभिनिर्घोषनादितरवेण सूर्याभविमाने मध्यमध्येन समागच्छन् यत्र सुधर्मा सभा तत्रागत्य तां पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य मणिपीठिकाया उपरि सिंहासने पूर्वाभिमुखो निषीदति । [१४०] ततः (पृ० १०२ पं० ३] प्रागुपदर्शितसिंहासनक्रमेण १ सामानिकादय उपविशन्ति ।
(वृ० प० २६४-२६९) ३०१......"णं भंते ! .....केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! ........ठिई पण्णत्ता।
(राय० सू० ६६५) ३०२,३०३. सक्के णं भंते ! देविदे देवराया केमहिड्ढिए
जाव केमहासोक्खे ? गोयमा ! महिड्ढिए जाव महासोक्खे। से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससय
सहस्साणं जाव ३०४. तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं
जाव अन्नेसिं च बहूणं जाव देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव कारेमाणे पालेमाणे त्ति ।।
(वृ० ५० ५०७) ३०५. एमहिड्ढिए जाव एमहासोक्खे सक्के देविंदे देवराया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति
__ (श० १०१००,१०१) ३०६. दशमशते षष्ठोद्देशक: (वृ० ५० ५०७)
३०२. प्रभु ! शक्र सुरिंद्र सुरराय, केहवो महाऋद्धिवान कहाय।
जाव केहवो महा ईश्वर सुखवंत ? हिवै वीर कहै सुण संत ।। ३०३. शक्र सुरिंद्र महाऋद्धिवान, जाव महाईस्वर सुविधान ।
तिणरै बतीस लाख विमाण, सहस चउरासी सामानिक जान ।। ३०४. तावत्तीसग तेतीस, आठ अग्रमहिषी जगीस ।
जाव अन्य बहु सुर सुरी जेह, तसं अधिपतिपणे विचरेह ।।
३०५. एहवो शक महाऋद्धिवान, जाव महाईस्वरवंत जान ।
सेवं भंते ! सेवं भंत ! प्रभु तहत्ति वचन तुम तंत ॥
३०६. शतक दशमा नों सोय, ओ तो छट्टो उद्देशो जोय ।
अर्थ थकी आख्यात, बहु अन्तर ढाल साख्यात ॥ ३०७. ढाल बेसौ चउवीसमी ताह्यो, भिक्षु भारीमाल ऋषिरायो। सुख संपति तास पसायो, हद 'जय-जश' हरष सवायो ।।
दशमशते षष्ठोद्देशकार्थः॥१०६॥
३०८,३०६. षष्ठोद्देशके सुधर्मसभोक्ता, सा चाश्रय
इत्याश्रयाधिकारादाश्रयविशेषानन्तरद्वीपाभिधानान् मेरोरुत्तरदिग्वत्तिशिखरिपर्वतदंष्ट्रागतान् लवणसमुद्रान्तर्वत्तिनः ।
(वृ० प०५०७)
३०८. षष्ठमुदेशे सुधर्मा सभा कही सुखकार ।
ते आश्रय तिण कारणे, हिव आश्रय अधिकार ।। ३०६. अन्तरद्वीपा मेरु थी, उत्तर दिशि वृत्ति माय ।
सिखरी गिरि दाढा लवण-दधि अंतर कहिवाय ।। ३१० कह्यो धर्मसी इहविधे, लवणोदधि जल मांय ।
अंतर छै तिण कारण, अंतरद्वीप कहाय ।। ३११. प्रभु ! उत्तर नां मनुष्य नों, एकोरुक अभिधान ।
तास द्वीप पिण एगुरुक, किहां कह्यो भगवान ? ३१२. इम जिम जीवाभिगम में, तिमज सर्व सुविशेष ।
जाव शुद्धदंत द्वीप लग, ए अठबीस उद्देश ।।
३११. कहिणं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगरुयमणुस्साणं
एगुरुयदीवे नाम दीवे पण्णत्ते? ३१२. एवं जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव सुद्धदंतदीवो त्ति एए अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियब्वा ।
(थ० १०१०२)
*लय : सुण चरिताली थारा लक्षण
३८० भगवती-जोड़
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490