Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 380
________________ २१६. सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, दलयित्ता पुप्फारुहणं जाव धूवं दलयति । (राय० सू० ३१२) २१७. सिद्धायतणं अणुपयाहिणीकरेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति (राय० सू० ३१३) २१६. आले गोशीर्ष चंदन करि, तास छांटणां देहो। फूल चढावै माला बांध, वली धूप खेवेहो ।। वा०-ए सिद्धायतन ने दक्षिण नै विषे दक्षिण द्वार मुख-मंडप, प्रेक्षागृहमंडप, चैत्य-थूभ, जिन-प्रतिमा, चैत्य-रूंख, महेंद्र-ध्वज, नंदा-पुष्करणी–ए सर्व दक्षिण दिशे छ । तेहनी पूजा करीन हिवै प्रथम जे सिद्धायतन कह्य छ, तिहां आवी तेहनें प्रदक्षिणा देई उत्तर दिशे मुखमंडपादिक जे छ, तेहनें पूजे । ते अधिकार कहै छ२१७. प्रदक्षिणा सिद्धायतन प्रति, करतो शक्र जिवारै। जिहां उत्तर नी नंदा पुक्खरिणी, आवै तिहां तिवारै ।। वा०-सिद्धायतन में प्रदक्षिणा करतो उत्तर दिशे जिहां छेहड़े नंदा पोक्खरणी छ, तिहां आयो। २१८. तिमहिज सर्व काय पूजा ते, मयूरपिच्छ पूंजेहो । उदक सींचवै चंदन चर्चे, कार्य इत्यादि करेहो ।। २१६. जिहां उत्तर नी महेन्द्र ध्वजा छ, तिहां शक्र आवेह । तिमहिज पूंजै जल सींचे, पूवरवत अर्चेह ।। २२०. जिहां उत्तर नों चैत्य रूंख छ, तिहां आवै आवी नैं । तिमहिज पूजे जल सं सींचे, कार्य इत्यादि करीनै । २२१. जिहां उत्तर नों चैत्य थूभ छ, तिहां आवै धर खंतो। तिमहिज पूंज जल सं सींचे, कार्य इत्यादि करंतो।। २२२. जिहां पश्चिम नी मणिपीठिका, जिहां पश्चिम नी जेहो । जिन प्रतिमा त्यां आवै आवी पूजा तिमज करेहो ।। २१८. तं चेव । (राय० सू० ३१३) २२३. जिहां उत्तर नी जिन-प्रतिमा छै, त्यां आवै आवी में। तिमहिज पूजा सगली जाणो, अर्चा सर्व करीने । २२४. ज्यां पूरव नी जिन-प्रतिमा छ, तिमहिज अर्चा जाणं । ज्यां दक्षिण नीं जिन-प्रतिमा छ, पूजा तिमज पिछाणं ।। २१६. जेणेव उत्तरिल्ले महिंदज्झए तेणेव उवागच छइ, उवागच्छित्ता। (राय० सू० ३१४) २२०. जेणेव उत्तरिल्ले चेइयरुक्खे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता। (राय० सू० ३१५) २२१. जेणेव उत्तरिल्ले चेइयथूभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता (राय० सू० ३१६) २२२. जेणेव पच्चथिमिल्ला मणिपेढिया जेणेव पच्चत्थि मिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ, उबागच्छित्ता तं चेव । (राय० सू० ३१७) २२३.... जेणेव उत्तरिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं चेव । (राय० सू० ३१८) २२४. जेणेव पुरथिमिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जेणेव दाहिणिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छित्ता तं चेव। (राय० सू० ३१६,३२०) २२५. जेणेव उत्तरिल्ले पेच्छाघर-मंडवे "" (सू० ३००) तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता (राय० सू० ३२१) २२६. जा चेव दाहिणिल्ले वत्तव्वया सा चेव सव्वा । (राय० सू० ३२१) २२५. जिहां उत्तर नों प्रेक्षा घर मंडप छै महासुखदायो। तिहां शक्र सुर इन्द्र सुराधिप, आवै आवी ताह्यो ।। २२६. वक्तव्यता जे कही दक्षिण नी, तेहिज सर्व विचारं । पूरव ने द्वारे पिण कहिवी, वलि उत्तर में द्वारं ।। वा०-इहां घणी परतां देखी। तिहां पश्चिम ना द्वार नों अधिकार नथी कह्यो, पिण संभवियै छ२२७. दक्षिण खंभ पंक्ति फून पूज, उत्तर प्रेक्षा गेहो। जिम दक्षिण प्रेक्षा-गृह उत्तर खंभ पंक्ति तिम एहो ।। २२७. जेणेव उत्तरिल्लस्स पेच्छाघर-मंडवस्स दाहिणिल्ला खंभपंती तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता (राय० सू० ३२५) १. जोड़ जिस प्रति के आधार पर की गई है उसमें पश्चिम द्वार का उल्लेख नहीं मिला। जयाचार्य ने यह संभावना प्रकट की है कि पश्चिम द्वार का वर्णन भी होना चाहिए । जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित 'रायपसेणइयं' में ऐसा पाठ है। (देखें सू० ३२२) ३६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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