Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नहीं, प्रबल कामाग्नि नै परितापे विध्वंस पामै ।
ते योनि माहि जे जीव ऊपज ते मरैज । नीकलिवा ने मार्ग मिल नहीं अने वृद्धि पामी न सके ते भणी हत-गर्भ योनि कहिय । ते स्त्री रत्न ने बीजो पुरुष भोगवी न सके । चक्रवर्ती नै इज भोग में आवै ।
संखावत्ता णं जोणी इत्थिरयणस्स संखावत्ताए णं जोणीए बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमति विउक्कमंति चयंति, उवचयंति नो चेव णं णिप्फजंति ।
(पण्ण ६।२६) शंखावर्तायां योनौ बहवो जीवा जीवसंबद्धापुद्गलाशचावक्रमन्ते-आगच्छंति, व्युत्क्रामन्ति-गर्भतयोत्पद्यन्ते तथा चीयन्ते-सामान्यतश्चयमागच्छन्ति, उपचीयंते -विशेषत उपचयमायान्ति परं न निष्पद्यन्ते अतिप्रबलकामाग्निपरितापतो ध्वंसगमनादिति
(प्रज्ञापना वृ० प० २२८) संयुक्तवंशीपत्रद्वयाकारत्वाद् वंशीपत्रा
(प्रज्ञा० वृ० प० २२८) वंसीपत्ता णं जोणी पिहुजणस्स, बंसीपत्ताए णं जोणीए पिहुजणा गन्भे वक्कमंति। (पण्ण ६।२६)
बंशी नां पत्र नै आकार हुवं ते वंशीपत्रा योनि। घणी मनुष्यणी स्त्री ने हुवे । ते वंशीपत्रा योनि में विष घणां गर्भ अपक्रम, संक्रम, गर्भपणे ऊपज । पृथगजना प्राकृतजना इत्यर्थः ।
सोरठा ३४. पूर्वे योनी उक्त, योनिवंत जीवां तण ।
वेदन जिन-वच युक्त, कहियै छै हिव वेदना ।। ३५. *हे प्रभु ! वेदना किते प्रकारै? जिन कहै तीन प्रकारो।
शीत वेदना उष्ण वेदना, शीतोष्णा वेदना धारो।।
३६. पन्नवण वेदन पद पैंतीसम, जाव नारक स्यं भदंतो !
दुख-वेदन के सुख नी वेदन, के अदुख असुख वेदंतो?
३४. अनन्तरं योनिरुक्ता, योनिमतां च वेदना भवन्तीति तत्प्ररूपणायाह
(वृ०प० ४६७) ३५. कतिविहा णं भंते ! वेयणा पण्णत्ता?
गोयमा ! तिविहा वेयणा पण्णत्ता, तं जहा-सीया,
उसिणा, सीओसिणा। ३६. एवं वेयणापदं (प० ३५११) भाणियव्वं जाव
(श० १०॥१६) नेरइया णं भंते ! किं दुक्खं वेयणं वेदेति ? सुहं
वेयणं वेदेति ? अदुक्खमसुहं वेयणं वेदेति? ३७. गोयमा ! दुक्खं पि वेयणं वेदेति, सुहं पि वेयणं वेदेति, अदुक्खमसुहं पि वेयणं वेदेति ।
(श० १०।१७)
३७. जिन कहै दुख-वेदन पिण वेदै, सूख-वेदन पिण वेदै।
अदुख असुख वेदन पिण वेदै, भाखी ए त्रिहुं भेदै ॥
वा०-'वेयणापयं भाणियवं' ति वेदनापदं च प्रज्ञापनायां पञ्चत्रिंशत्तमं तच्च लेशतो दर्श्यते ।
(वृ० प० ४६७)
सोरठा ३८. केवल दुख नहिं होय, वलि केवल पिण सुख नहीं।
अदुख असुख अवलोय, अर्थ पन्नवणा में इसो।।
वा०-वेदना-पद ते पन्नवणा नां पैतीसमा पद नै विषे कह्यो छै ते देखाई छ३६. नारक हे भगवंत ! स्यं वेदै शीत वेदना ।
तथा उष्ण वेदंत, कै शीत उष्ण वेदेति के ? ४०. जिन कहै शीत वेदंत, एम उष्ण पिण वेदिये।
पिण ते नारक जंत, शीतोष्णा वेदै नथी । ४१. असुरकुमार सुजोय, वेदै ए त्रिहुं वेदना।
एवं जावत सोय, कहिवं वैमानिक लगे।
वा०- इहां वृत्ति में कह्यो-नारक ने शीत वेदना अने उष्ण वेदना, पिण शीतोष्णा वेदना नथी । एहनों पाठ लिख्यो ते तो शुद्ध। एवं वेदना पद भणवो। अन आगल कह्यो-एवमसुरादयो वैमानिकांता : असुरकुमार थी वैमानिक तक इमज जाणवो, एहवो कह । “पन्नवणा सूत्रे नारक में प्रथम दोय वेदना कही *लय : कुंकुवर्णी हुंती रे वेही ३२२ भगवती-जोड़
वा०-नेरइयाणं भंते ! कि सीयं वेयणं वेयंति ? गोयमा! सीयंपि वेयणं वेयंति एवं उसिणंपिणो सीओसिणं एवं सुरादयो वैमानिकान्ताः
(वृ० प० ४६७)
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