Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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दूहा १२७. देवदूष्य पहिरी करी, पेहरै गेहणा सार।
कहिये ते अधिकार हिव, सांभल ज्यो धर प्यार ।। १२८. *पहिरै अष्टादशसर हारो, ए पूर्ण हार श्रीकारो।
अर्द्ध हार पहिरंत, ते नवसरियो द्युतिमंत ।।
१२६. वली एकावली पहिरंतो, विचित्र मणी मोती नों सोहंतो।
पछै पहिरै मुक्तावली हारो, वली रत्नावली सविचारो ।।
१२८. हारं पिणिद्धति.... अद्धहारं पिणि इ
___(रायः सू० २८५) हारः-अष्टादशसरिकः, अर्द्धहारो-नवसरिक:
(राय० वृ० प० २५१) १२६. एगावलि पिणिद्धेति पिणिवेत्ता मुत्तावलि पिणिद्धेति
.........."रयणावलि पिणिद्धेइ (राय० सू० २८५) एकावली-विचित्रमणिका मुक्तावली-मुक्ताफलमयी
(राय० वृ०प० २५१) १३०. पिणिवेत्ता एवं-अंगयाइं केयूराई कडगाइं तुडियाई
कडिसुसगं दसमुद्दाणंतगं (राय० सू०१८५) अंगदानि-बाह्याभरणविशेषाः। दशमुद्रिकानन्तकं हस्तांगुलिसम्बन्धिमुद्रिकादशकं ।
__(राय० वृ०प० २५२) १३१. विकच्छसुत्तगं मुरवि (राय० सू०२८५)
१३०. अंगद बहिरखा एमो, केऊर कडग त्रुटित पिण तेमो।
कटिसूत्र कणदोरो एहो, मुद्रिका दश अंगुली विषेहो ।
१३२. कंठमुरवि पालंब
(राय० सू० २८५)
१३१. वक्षसूत्र हिया नों वारू, ओ तो पहिरै अधिक उदारू ।
मरवि मादल ने आकारो, गेहणो पहिरै अति धर प्यारो॥ १३२. वलि कंठमुरवी पहिरंत, ते तो कंठ विषे झलकंत ।
वलि झंबणा अति लहकंत, पहिरै उद्योतकारी अत्यंत ।। १३३. कर्ण कुंडल अति भलकै, च डामणी ते सेहरो चलकै ।
ओ तो सर्व रत्न में सारो, शोभै इंद्र ने शिर श्रीकारो।।
वा०-चडामणि नाम सकल पार्थिव रत्न सर्व सार, देवेंद्र ने मस्तके कीधो है निवास, सर्व अमंगल ने शांति नों करणहार, रोग-प्रमुख दोष ने नाश नों करणहार, अतिही श्रेष्ठ लक्षणे करी सहित परम मंगलभूत आभरण विशेष ।
१३४. नाना प्रकार नां जेह, रत्ने करि युक्त सलेह ।
एहवो मुकुट अनूप, इम गेहणा पहिरचा धर चूंप ॥
१३५. गंथिम वेढिम पुरिम संघातं, चउविध माल्य करीने सुजातं।
सुरतरु जिम आत्म प्रतेह, अलंकृत विभूषित करेह ।।
१३३. कुंडलाई चूडामणि (राय० सू० २८५)
कुण्डले–कर्णाभरणे (राय० वृ० प० २५२) वा०-चूडामणि म सकलपार्थिवरत्नसर्वसारो देवेन्द्रमनुष्येन्द्रमूर्द्धकृतनिवासो निःशेषामंगलाशान्तिरोगप्रमुखदोषापहारकारी प्रवरलक्षणोपेतः परममंगलभूत
आभरणविशेषः । (राय० वृ०प०२४२) १३४. ""मउडं पिणि इ (राय० सू० २८५)
चित्राणि-नानाप्रकाराणि यानि रत्नानि तै: संकटश्चित्ररत्नसंकट:-प्रभूतरत्ननिचयोपेतः
(राय० वृ०प०२५२) १३५. गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमेणं चउब्बिहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अप्पाणं अलंकियविभूसियं करेइ ।
(राय० सू० २८५) १३६. दद्दर-मलय-सुगंध-गंधएहिं गायाई भुकुंडेति
_ (राय० सू० २८५) १३७,१३८. दिव्वं च सुमणदामं पिणि ।।
(राय० सू० २८५) तए णं से....."केसालंकारेणं मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेणं वत्थालंकारेणं-चउव्विहेणं अलंकारेणं अलंकियविभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे
(राय० सू० २८६)
१३६. कुंडिका भाजन विषेह, गाल्यो श्रीखंड जेहवं एह।
परम सुगंध करेह, चारू उज्जल कीधी देह ॥ १३७. प्रवर पुष्प नी माला, तिका पहिरै अधिक विशाला।
हिव शक्र सुरेंद्र तिवार, कीधा चउविध अलंकार ।। १३८. केशालंकार मल्लालंकार, वलि वस्त्रालंकार विचारं ।
आभरणालंकार' सुजोय, प्रतिपूर्ण अलंकार कर सोय ।।
*लय : ज्यार शोभे केसरिया साड़ी १. 'रायपसेणइयं' में पहले आभरणलंकार और उसके बाद वस्त्रालंकार है।
शा० १०, उ० ६, ढाल २२४ ३५७
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