Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 356
________________ ५६. कृष्णादिक घर प्रेम, भोग भोगवै कंम, तो ५७. दाढा नों सुविशेत्र जीत आचार संपेख, ५८. भव्य अभव्य सुरताय, सभा सुधर्मा मांय, ५६. ए च्यारूं अवधार, हवं परं ॥ सभा सुधर्मा ने विषे। सुर किंण विध भोगवै ॥ अधिक मुरातव आलियो । कल्प स्थिति लौकीक मग ॥ समदृष्टी ने मिच्छदिट्टि । काम भोग नहि भोगवं ॥ विमाण नां स्वामी रामं जीत आचार, चमर सुरियाभ तणी ६०. चमर सुधर्मा तेम काम भोग नहि भोगवे । जीत आचारे एम, पिण ते धर्म खाते नहीं ||" (ज० स० ) ६१. * हे आर्यो ! समर्थ अछे कांइ, चमर असुर नो राय । चमरचंचा नामे भली जी कांइ, राजधानी रे मांय ॥ ६२. सभा सुधन ने विधे कांद, चमर सिंघासन ताय । उस सहस्र अच्छे भला जी कांई, सामानिक सुखदाय ॥ ६३. तावत्तीसग यावत वली कांइ, अन्य बहु असुरकुमार । अमर सुरी संग परिवर्यो जी कांइ, महाऽहत जाव विचार ॥ । वा० इहां जाव शब्द थकी इम जाणवो 'नट्टगीयवाइयतंतीतलतालघण मुगावा इयरवे दिव्बाई भोगभोगाईत तिहां महता नाम मोटा, महत नाम अच्छिन्न निरन्तर अथवा कथा स्यूं बंध्या जे गीत, नाट्य वाजंत्र तेहने शब्दे करी अने तंत्री तल ताल नां शब्द करी अन तुडिय कहितां शेष बाजा वली घनमृदंग ते मे समान ध्वनि वाली मानते पटु कहितां चतुर पुरुषे बजायो तेहनों जे शब्द तेणे करी दिव्य भोग प्रत भोगवतो विचरवा समर्थ इम का ं । तेहने विषेही विशेष कहे केवल परिवारहटीए— डेव नवरं परिचार ते परिचारणा, ते इहां स्त्री शब्द श्रवणरूप देखवादिरूप, तेहिज ऋद्धिसंपदा ते परिचारणाऋद्धि । तेणे करी कलत्रादि परिजन परिचार मात्र करिकै इत्यर्थः । ६४. भोगवतोज छतो तिहां कांइ, केवल ऋद्धि परिचारणा जी कांड, विचरण समरथ तेह। शब्द रूप आदेह || रूप देखो आदि । ६५. स्त्री रव सुणवा नीं विषे कांइ, ६६. पिण नहि ते निश्च करी कांइ तेहिज ऋद्धिनीं संपदा जी कांड, तिण करि चित अहलादि' ।। मैथुन प्रत्यय पेस भोग भोगवतो विचरवा जी कांइ, समर्थ नहि छै विशेख || ६७. चमर असुरिद नों प्रभु ! कांड, तास सोम महाराय । अग्रमहिषी केतली जी कांइ ? जिन कहै च्यार कहाय ॥ *लय : अब लगज्या प्राणी ! चरणें तणें जी प्रभु १. गाथा ६४ एवं ६५ की रचना पाठ और वृत्ति दोनों के आधार पर की हुई है । वृत्ति का अंश पूर्ववर्ती वार्तिका में उद्भुत है, इसलिए उसे यहां नहीं रखा गया है । ३४० भगवती - जोड़ Jain Education International ६१. प अपनी ! चमरे अगुरिदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए ६२. सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसट्टीए सामाणियसाहस्सी हिं ६३. तायत्तीसाए जाव (सं० पा० ) अण्णेहि य बहूहि असुरकुमारेहिं देवेहिं य, देवीहि यसद्धि संपरिवुडे महयाहय जाव (सं० पा० ) वा० - इह यावत्करणादिदं दृश्यं 'नट्टगीयवाइय तंतीतलडिपपणमुगपदुप्पबाइवरलेणं दिव्वाई भोगभोगाई' तिथच महता बृहता अहतानि - अच्छिन्नानि आख्यानकप्रतिबद्धानि वा यानि नाट्यगीतवादितानि तेषां तन्त्रीतलतालानां च 'तुडिय' त्ति शेष तूर्याणां च धनमृदंगस्य च मेघसमानध्वनिमर्द्दलस्य पटुना पुरुषेण प्रवादितस्य यो रवः स तथा तेन प्रभुर्भोगान् भुञ्जानो विहर्तुमित्युक्तं । तत्रैव विशेषमाह --- ' केवलं परियारिड्ढीए' त्ति केवलं नवरं परिवार: परिचारणा सह स्त्रीशब्दश्रवणरूपसं दर्शनादिरूपः स एव ऋद्धिः - सम्पत् परिवारद्विस्तया परिवारद्धर्घा वा कलत्रादिपरिजनपरिचारणामात्रेणेत्यर्थः । ( वृ० प० ५०६ ) ६४. मुंजमा विहरिए ? केवल परियारीए ६६. नोवत्तियं ( श० १०1६९ ) 'नो चेव........' ति नव च मैथुनप्रत्ययं यथा भवति एवं भोगभोगान् भुञ्जानो विहर्तुं प्रभुरिति । ( वृ० प० ५०६ ) ६७. चमरस्स गं ते अमुरिदस्म असुरकुमाररणो सोमस्य महारण्गो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? अज्जो ! बसारि अममहिती पण्णत्ताओ जहा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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