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[ ३२ ] अवस्थाओं में पैदा होना अपनी प्रशंसा करने व सुनने में रति हेाने का फल है।
५-२१७. मनोहर ! यदि कोई तुम्हारी प्रशंसा करे तो उस उपद्रव से बचने के लिये परमेष्ठी के शरण पहुंचा, णमोकार मंत्र का स्मरण करते रहो व आत्मचिंतन करने लगा।
६-३२०. प्रत्यक्ष व परोक्ष किसी भी प्रकार दूसरे को निन्दा करने वाला अशान्त ही रहता है इसलिये परनिन्दा करना अपने आप दुःख मोल लेना है, यदि तुम में बल, विवेक, धैर्य, एवं अनुग्रहबुद्धि है तो उसी से स्वयं एकान्त में कहो अन्यथा परदोषवाद में मौन रहो ।
७-३२१. सर्वोत्कृष्ट प्रशंसा के योग्य निर्दोष आत्मा (परमात्मा) है, तू तो सौप है, अनधिकार बात मत चाहो ।
८-३२२. बहुत कुछ गुण होते हुए भी यदि विकल्प है तो
एक यहीं दोष है, जब तक दोष है तब तक प्रशंस्य नहीं