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६- ३६६. निज क्रिया का उद्देश्य निज ही है और फल भी निज ही है अर्थात् जो भी प्रयास किया जाता है वह शांति के अर्थ ही किया जाता है यदि वह प्रयास पर प्रतीक्षापूर्ण है तब उसका फल आकुलता है और यदि परनिरपेक्ष है तो उसका फल निराकुलता है, पहिले प्रयास में उद्देश्य के विरुद्ध फल है, दूसरे प्रयास में उद्देश्य और फल एक है।
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७- ४२२. इस समय तुम जिस परिणाम में हो वह परिणाम व काल थोड़े ही समय में भूतकाल में सम्मिलित हो जायगा फिर किसमें लिप्त होना योग्य है ? अपने निरपेक्षस्वभाव को देखो, केवल ज्ञाता रहो । फ्र फ
८ - ४३३. संसार के दुखियों की ओर देख ! कोई स्त्रीवियोगी है कोई पतिवियोगिनी है कोई रुग्ण है कोई गरीब है तथा जिनके पास धन आदि है वे किसी अन्य की चाह में हैं, जो भोगासक्त हैं. उनके भोग नियम से नष्ट होने वाले हैं सार कुछ भी नहीं, सच की उपेक्षा करके अपने आप में लीन रहना ही सार तथा शरण है । फॐ क