Book Title: Atma Sambodhan
Author(s): Manohar Maharaj
Publisher: Sahajanand Satsang Seva Samiti

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Page 317
________________ [ २७४ ] किसी को कितना भी वैभव मिले, मेरी दृष्टि में कुछ भी नहीं है, किसी को कितने भी भोग मिलें वे भोगें तो स्वरूप से भ्रष्ट होने से गरीब ही तो हैं । फ. ॐ क ६-६३६, मेरा कहीं कुछ नहीं, कहीं कोई नहीं, अकेला हूँ, असहाय हूँ, स्वयं सहाय हूँ, कुछ और कोई हो भी क्या सकता है ? वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है । फ्र ॐ १० - ६६६. कितनी भी चेष्टायें कर लो, ज्ञानमात्र के सिवाय तेरे पास रहता कुछ नहीं, जब मेरा ज्ञानमात्र रहना ही वस्तुस्थिति है तब विभाव होना, पर से ममत्व करना, पर को भला बुरा मानना भारी अज्ञानता है; इसी अज्ञानता से दुखी होना पड़ता, नहीं तो, सहजज्ञान में आनन्द ही आनन्द है । ॐॐ फ ११- ६६८. तुमने बीमारियाँ व आपत्तियां सहों उनमें यदि मरण कर जाते तब क्या यह परिकर तुझ आत्मा को कुछ होता ? नहीं होता, फिर ऐसा ही मान कर शान्त बैठो । फ ॐ फ १२–७००, यह दृश्यमान सबै, जिस पर दृष्टि देकर आशा

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