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५० ध्यान
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[ २३३ ]
१-१४३. परमात्मा पर वस्तु है अतः मुझे निश्चयदृष्टि से या उपादानतया संसार से पार नहीं कर सकता परन्तु परमात्मा का ध्यान तो अवश्य दोनों दृष्टि से संसार से पार कर सक्ता, क्योंकि परमात्मध्यान निजावस्था है अतः स्ववस्तु है ।
फ ॐ क
२- ४८०. यह मन ठाली नहीं रहता, इसके सामने तपस्वियों का तप का आदर्श रखो प्रतिष्ठितों का या प्रतिष्ठा का नहीं ।
फ्रॐ ॐ
३-५७८. परसम्बन्धी बात तो बड़ी रुचि से सुनते हो कभी अपना भी ध्यान करो कौन हो ? मनुष्य होने से क्या लाभ लेना है या पर की चर्चा में ही जीवन गुजारना है ? फॐ फ
४ - ६१३. जो जिस भाव में ठहरता है उसके उस भाव की