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४६ माया
१-५२५. यह दृश्य जगत व ऐसा द्रष्टा ये सब मायाजाल हैं
क्योंकि ये यों रहने तो हैं नहीं; क्षणभर का समागम है परन्तु उस ही क्षण में मोही आपे से बाहर हो जाता और पापी, मलिन बनता रहता ।
२-५२६. जो दिखता, वह विश्वास के योग्य नहीं क्योंकि वह पर है जो अपना है वही विश्वास के योग्य है, अपना है-अपना सहज स्वभाव, उसके अतिरिक्त सब अहित हैं, अपने पर दृष्टि दो, मत आकुलित बनो, क्या रखा है चार दिन की चांदनी में, आखिर तो अँधेरी ही होना है परन्तु भीतर की चांदनी में अँधेरी आपन्न नहीं है प्रत्युत शीघ्र ही पूर्ण अनन्त ज्योति प्रगट होकर सदा. रहेगी।
३-५२७. दिखने में आने वाला समस्त जगत पर्यायरूप है