________________
[ २३० ] निपट अज्ञानता है)।
4 ॐ ' ३-१२१. रागादिक वैभाविक एवं आकुल्योत्पादक औपाधिक भाव है, इनमें हित की श्रद्धा न करो।
ॐ ॥ ४-१२६. सम्यग्दृष्टि जिस सत्कल्पना से अर्हत के स्वरूप में
अहंत का सत्यश्रद्धान व ज्ञान करता है उस सकल्पना को भी अपना स्वभाव नहीं मानता, यदि उसे कोई अपना स्वरूप माने तब वह अहंत यो निज शुद्धात्मा के स्वरूप पर नहीं पहुंचा।
५-१४६. आहार करता हुआ भी जो अपने को अनाहार
स्वभावी श्रद्धापूर्वक समझे वह आहार करता हुआ भी अनाहारी है।
६-४३ जगत् में केवल रोने वाले ही पापी नहीं है किन्तु हँसने वाले भी पापी समझिये क्योंकि जैसे उनके अरति शोक मोहनीय पार का उदय है इनके भी हास्य रति मोहनीय पाप का उदय है पुण्यात्मा तो वे है जिनको रुचि परमात्मा या निजशुद्धात्मा में है।
卐 ॐ ॥