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[ ४१ ] ४-४८४ ज्ञायकभाव तुम्हारा मान तुम ही कर सकते हो व
अपमान भी तुम हो कर सकते हो, अन्य कोई तुम्हारा मान अपमान कर ही नहीं सकता, जिससे लोग बोलते वह तुम नही हो अतः मान अपमान की उपेक्षा ही करते जावा, लोकव्यवहार को मान अपमान समझ कर मूर्ख मत बनो।
॥ ॐ ॐ ५-५७६. जिस रूप में लोक मुझे देखते हैं या देखने का अनुमान करते हैं वह निमित्ताधीन होने से स्वयं असत् है, और जिस रूप में मैं हूं वह सब के लिये सामान्य है। असत् का सन्मान अपमान क्या और सामान्य का सन्मान अपमान क्या ?
ॐ ॐ ॐ ६.-६२१. लोक कहते हैं-कि ये गुरुकुल चला रहे हैं अन्य
संस्थायें चला रहे हैं, व्यवस्था कर रहे हैं उपकार कर हैं आदि, किन्तु ये सब शब्द मेरे अपमान के हैं। मैं समझ भी रहा हूं कि ये अपमान के शब्द हैं क्योंकि मेरो कर्तव्य तो निवृत्तिपथगमन ही है इससे उल्टी बात सुनना अपमान ही तो है, तो भी यह अपमान अपनी कमजोरी से गुरुकुल शिक्षासदनों के लिये चेष्टा कर करा