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मैंने सभी पुद्गल मोह से बार बार भोगे और छोड़े जूठे हुए की तरह उन भोगों में मुझ ज्ञानी की क्या इच्छा है। ।
जो भी तुम्हें दिखता मिलता विचार में ओता वह सब तुमने चार बार तो भोगे कुछ भी तो नहीं मिला उल्टा क्लेश ही तो बढ़ा अब "सब हटो मैं तो ज्ञानमात्र निजवैभव का ही भोगू गा" ऐसा ही विचारो । ॐॐॐ फ्र
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१२- ३१३. (छ) मामपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्नच प्रियः । मां प्रपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्नच प्रियः ॥ श्री पूज्यपाद । मुझको नहीं देखता हुआ लोक मेरा शत्रु भिन्न कैसे ? मुझ को (ज्ञानमात्र आत्मा को देखता हुआ लेकि मेरा शत्रु और मित्र कैसे ९
मेरा कोई भी प्राणी न शत्रु है न मित्र है, मेरी ही करतूत (कल्पना) शत्रु मित्र बनती है। ऐसा परिणाम रखा, यदि कल्पना ही उठे तो ।
ॐ फ
१४- ३१३ (ज) मलवीजं मलयोनिं गलन्मलं पूतिगंघि वीभत्सम् । पश्यन्न' गम नंगा द्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥
श्री समंतभद्रसूरि ।