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, [ ५८ ] किसी की अपेक्षा की आवश्यक्ता नहीं, पर की सहायता न चाहना ही इसका मूल उपाय है परन्तु हम लोग इसके विरुद्ध चलते हैं—यह महती भूल है। ४-अपनी परिणति को प्रसन्न रखो-अन्य प्रसन्न हों चाहे न हों। ५-शरीर की निरोगता पर उपेक्षा रखना आत्मसिद्धि को अवहेलना है विरताविरत अवस्था में विरत अवस्था का आचरण होना असंभव है। ६-गृहस्थों के चक्र में न पड़ना तथा निरपेक्ष त्यागी रहना-पत्थर पर सोना पर चटाई न मांगना-लंगोटी न मिले तब द्रव्यमुनि ही बन जाना पर लंगोटी न मांगना-सूखी रोटी मिल जावे पर घी की इच्छा न करना।
१७-३६७. मनोहर ! जब तुमने ब्रह्मचर्यव्रत एवं देशव्रत
धारण का विचार किया तब क्या लक्ष्य बनाया था अब बीच में कितने ही आये हुए लक्ष्यों को त्याग कर उसी अपूर्व पूर्व लक्ष्य पर आजावो किस के लिये हाथ पैर पीटते ? जगत धोका है क्षणिक है अन्यस्वभाव है तुम्हारी