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का ति अहित नहीं; आत्माभिमुखता, आत्मज्ञान, आत्मचर्या से ही मेरा हित है ।
ॐ
११-६७७. देह का सुखिया स्वभावी होना आत्मा का अहित करना है अथवा देह में आराम या गैर आराम की बात ही क्या है जिससे आत्मा को आराम (शांति) मिले वह काम योग्य है । शरीर को सुखिया बनाने से प्रायः विभाव उमड़ते हैं और शीत उष्ण आदि परीषहीं में रहने से प्रायः अशुभोपयोग नहीं होते प्रत्युत. शुद्धोपयोग पर दृष्टि पहुँचतीन्तु ये परीषहें तहां तक ही होना चाहिये जहां तक वेदनाप्रभव आध्यान का प्रारम्भ हो ।
फ ॐ फ
१२ - ६६६. लोगों ने कुछ कह दिया... कि ये अच्छे त्यागी हैं बड़े उपकारी हैं, इन महाराज के बाद यह हैं आदि शब्दों से तेरा हित होगा ? या सत्र का विस्मरण कर के व' सब की अपेक्षा करके विशुद्ध ज्ञानमय रहने में तेरा हित होगा ?
फॐ फ्र १३ - ७१५. पापान्वित शोकातुर की बात मत सुनो, जो जैसी