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२५-७६३. जो तुम्हारे सामने अन्य की निन्दा करता
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रहता हो "समको वह तुम्हारे परोक्ष में तुम्हारी भो
निन्दा करता होगा क्योंकि उसके तो निन्दा करने की निन्द्य आदत पड़ रही है, अतः निन्दक से सावधान रहो ।
ॐ क
२६ - ८२६. यदि सारा संसार भी निन्दा करे तब भी तेरा क्या बिगड़ा ? उनका मुख है उनकी इच्छा है जो चाहे कहें, तेरा क्या छुड़ाया ? मूर्ख न वन अपने चैतन्य भगवान की कृपा पा ।
ॐ क २७-८३४. जो दूसरों की निन्दा करते हैं वे अपनी प्रशंसा चाहते हैं यह बात स्वयं सिद्ध हो जाती है, जो अपनी प्रशंसा चाहते हैं वे मूढ़ हैं, मूढ़ों का संग अशान्ति का हो निमित्त है उस संग को त्यागो या समझाने अथवा चर्चा के द्वारा उसको प्रकाश में जाने दो ।
ॐ क
२८-८५२. प्रशंसा और निन्दा दोनों मूढ़ आत्मा के